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ॐ ५०८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ®
युद्ध में अंधे की तरह अज्ञानी मिथ्यात्वी भी विकारों के साथ युद्ध में विजयी नहीं हो पाता
जिस प्रकार अन्धा आदमी शस्त्रास्त्र चालन में कितना ही दक्ष हो, शूरवीर हो, साहसी हो, किन्तु युद्ध में विजयी नहीं हो सकता, इसी प्रकार मिथ्यात्वी चाहे .. जितना शास्त्रज्ञ हो, क्रियापात्र हो, उत्कट बाह्य तप करता हो, साधु भी बन गया हो, महाव्रतों की प्रतिज्ञा भी ले ली हो, फिर भी मिथ्यात्व की, मिथ्यादर्शन की उपस्थिति में वह क्रोधादि या राग-द्वेष-मोहादि विकारों पर विजय प्राप्त नहीं कर सकेगा। उसका वह ज्ञान, तप, क्रियाकाण्ड उसे मोक्षमार्ग की ओर न ले जाकर संसारमार्ग की ओर ले जायेगा, वह व्यर्थ ही कायकष्ट सिद्ध होगा। मिथ्यात्वी का ज्ञान, तप, आचार कर्मक्षय का कारण न होकर कर्मबन्ध का ही कारण होता है, भले ही उससे शुभ कर्म का बन्ध हो।' जन्मान्ध वीरसेन हठाग्रहवश युद्ध करने गया, शत्रु राजा ने उसकी पीठ में प्रहार किया, तो वह घायल हो गया, उसका भाई शूरसेन शत्रु सेना को हराकर वीरसेन को बचाकर ले आया। मिथ्यादर्शन को पाप क्यों कहा गया ?
प्रश्न होता है-मिथ्यादर्शन को पाप क्यों कहा गया? इस विषय में यदि ऐसा प्रतिप्रश्न उठाया जाए कि विष को खराब क्यों कहा गया? साँप को खतरनाक क्यों कहा गया? इसका उत्तर यही मिलेगा कि ये जीव के लिए घातक हैं, प्राणहरणकर्ता हैं। इसी प्रकार मिथ्यादर्शन को भी घोर पाप इसलिए कहा गया कि यह जीव के समस्त आत्म-गुणों की घात करता है। विष तो एक ही बार मारता है, एक जन्म में ही घातक बनता है, उससे तो फिर भी योग्य उपचार से बचा जा सकता है, परन्तु मिथ्यात्व जन्म-जन्मों तक आत्म-गुणों का घातक बनता है, अनन्त जन्मों तक बार-बार जन्म-मरण का कारण बनता है, सद्बोध (बोधि) प्राप्त नहीं होने देता। दर्शनमोहनीय कर्म के कारण मिथ्यात्व जीव के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र सब पर पर्दा डाल देता है, विवेक मूढ़ बना देता है। जैसे मदिरा के नशे में चूर व्यक्ति अंटसंट बोलता है, उसका विवेक नष्ट हो जाता है, उसका व्यवहार भी असम्बद्ध हो जाता है, वैसे ही मिथ्यात्व का नशा चढ़ जाने पर जो अपना नहीं है, उसे वह अपना मानता है तथा देव, गुरु और धर्म वास्तविक नहीं हैं, ढोंगी हैं,
१. (क) न जिणइ अंधो पराणीयं।
. -आचारांग नियुक्ति २१९ (ख) अन्ध न जीते परनी सेना, तिम मिथ्यादृष्टि नवि सीजे जी।
वीरसेन-शूरसेन दृष्टान्ते समकितनी नियुक्त जी॥ -१८३ पापस्थान की सज्झाय (ग) 'पाप की सजा भारी, भा. २' से भावांश ग्रहण, पृ. १०५६-१०५७