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ॐ अविरति से पतन, विरति से उत्थान-२ ॐ ५०३ 83
कि माया-मृषावादी के भी विचार, वाणी और व्यवहार तीनों रूपों में विपरीतता होती है।
जान-बूझकर अपने बोले हुए वचन को
___ भंग करने वाले भी माया-मृषावादी आज तो प्रायः अधिकांश व्यक्ति विचार, वाणी और व्यवहार की एकरूपता से हटते जा रहे हैं। बोलने के बाद अपना ही बोला हुआ वचन पालने का लोगों को कम ध्यान रहता है। झूठ और वह भी कपट के साथ, इतना सहज हो गया है कि लोग अपने स्वार्थ के लिए ऐसा करने में जरा भी नहीं हिचकिचाते। कहाँ तो भारतीय संस्कृति का यह सूत्र था-"प्राण जाय पर वचन न जाई।" पर आज इसके विपरीत सूत्र-"प्राण जाय पर दाम न जाई।" या "प्राण जाय पर स्वार्थ न जाई।" प्रचलित हो रहा है। राजनैतिक स्वार्थ के वशीभूत होकर लोग सुबह एक बात कहेंगे, दोपहर को उसमें परिवर्तन कर देंगे और शाम को उससे बिलकुल विपरीत बात कहेंगे। इस प्रकार की हेराफेरी या गैर-वफादारी, वचनभग्नता या ठग-विद्या माया-मृषावाद के ही प्रकार हैं। माया-मृषावादी इसी प्रकार अपने वाग्जाल. या मायाजाल में लोगों को फँसाकर अपना उल्लू सीधा करता है।
- माया-मृषावादी कैसा होता है, कैसा नहीं ? .: 'उपदेश-सप्ततिका' नामक ग्रन्थ में धर्मबुद्धि और पापबुद्धि का दृष्टान्त माया मृषावाद को स्पष्टतः समझने के लिए पर्याप्त है। धर्मबुद्धि सरल स्वभावी, भद्र परिणामी, परहित चिन्तन सज्जन था, जबकि पापबुद्धि महाकपटी, ठगवृत्ति वाला, दंभी, असत्यभाषी परगुणद्वेषी और विश्वासघाती था। पापबुद्धि ने चिकनी-चुपड़ी बातें बनाकर धर्मबुद्धि को अपना मित्र बना लिया और साझेदारी में व्यापार के लिये उसे तैयार कर लिया। दोनों मिलकर व्यापारार्थ परदेश गये। सौभाग्य से काफी धन कमाया। पापबुद्धि ने सलाह दी कि अब इस धन को लेकर अपने देश में लौट चलना चाहिए। धर्मबुद्धि ने स्वीकार किया। दोनों ही धन लेकर वहाँ से रवाना हुए। रास्ते में पापबुद्धि ने कहा-"मित्र ! हमें जंगल पार करना है। रास्ते में चोर आदि को पता लगा तो हमें लूट लेंगे। इसलिए यहीं जंगल में इस वृक्ष के नीचे धन को गाड़ दें। कभी मौके पर आकर वापस ले जायेंगे।" बेचारा धर्मबुद्धि उसकी बातों में आ गया। एक वृक्ष के नीचे धन गाड़कर दोनों गाँव में पहुँचे। दो-तीन दिन
• १. (क) 'पाप की सजा भारी, भा. २' से भावांश ग्रहण (ख) मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्।
मनस्यन्यद् वचस्यन्यद् कर्मण्यद् दुरात्मनाम्॥
-हितोपदेश