Book Title: Karm Vignan Part 06
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 515
________________ * अविरति से पतन, विरति से उत्थान-२ ॐ ४९५ * - कमासधा" से ही होता है। पदार्थ में अपने आप में न तो रति है न अरति है, न तो प्रियता का भाव है न ही अप्रियता का। वह स्वयं तो जड़ है। जिसको वस्तु के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यस्वरूप का ज्ञान-भान नहीं, वही व्यक्ति मोहनीय कर्मवश रति-अरति नामक पापस्थान में प्रवृत्त होता है। अतएव यह मानना यथार्थ नहीं है कि सुख या दुःख = रति-अरति जड़ वस्तुओं में से उत्पन्न होते हैं। मानसिक कल्पना मात्र से ही यह होती है। कर्मसिद्धान्त का ज्ञान न होने से रति-अरति पाप का सेवन होता है उदाहरणार्थ-'अंगज' शब्द का अर्थ होता है-'अंग से उत्पन्न हो, वह अंगज।' अंग से तो पुत्र भी उत्पन्न होता है, जॅ आदि भी। एक वीर्य से उत्पन्न होता है, दूसरा पसीने से। फिर भी पुत्र के प्रति रति-प्रीति होती है और जूं के प्रति अरतिअप्रीति। इसलिए कि मन ने ऐसा मान लिया, एक को अच्छा और दूसरे को खराब। इसी प्रकार पुत्र उत्पन्न होने के समाचार सुनते ही रतिभाव उत्पन्न होता है और पुत्री के उत्पन्न होने का समाचार सुनते ही अरतिभाव, अप्रीति और ग्लानि होती है। ऐसा क्यों होता है ? कर्मसिद्धान्त का तत्त्वज्ञान न जानने से और मोहनीय कर्म के उदय से ही ऐसी इष्ट-अनिष्ट की, प्रिय-अप्रिय की कल्पना होती है और अज्ञ पुरुष इन दोनों के निमित्त से व्यर्थ ही रति-अरति के पाप का सेवन . करता है। . शरीर की उत्पत्ति में रति और नष्ट होने पर अरति क्यों ? ....शरीर भी जड़-पुद्गल है। शरीर की उत्पत्ति और नाश होना शरीर का स्वभाव (धर्म) है। कर्मवश मृत्यु होती है, फिर दूसरा शरीर मिलता है, किन्तु दोनों ही अवस्थाओं में आत्मा तो अजर-अमर शाश्वत रहती है। फिर भी अपने या दूसरे के शरीर के जन्म होने, टिके रहने, स्वस्थ रहने आदि में जीव रति करता है और अपने या अपनों के बुढ़ापा या मृत्यु के होने पर अरतिभाव लाता है। - रति-अरति दोनों पृथक्-पृथक् क्यों नहीं, एक क्यों ? . प्रश्न होता है-रति और अरति दोनों को अलग-अलग पापस्थान बतलाकर एक ही पापस्थान क्यों कहा गया? इसका समाधान यह है कि रति और अरति जो उत्पन्न होती है, वह एक ही पौद्गलिक वस्तु के संयोग-वियोग से उत्पन्न होती है। वस्तु एक ही है, उसकी संयोग-वियोग की अवस्थाएँ भिन्न-भिन्न हैं। मगर मूल १. 'पाप की सजा भारी, भा. २' से भाव ग्रहण, पृ. ९४३, ९४४, ९५४ २. उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्त सत्, सद्रव्यलक्षणम्। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ५, सू. २९

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