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* ४९८ कर्मविज्ञान : भाग ६
घाटा लग गया। अब अरति का भयंकर दौर चला। उसे असह्य दुःख हुआ । उसके एक हितैषी मित्र ने समझाया - " भाई ! तुम क्यों दुःखी हो रहे हो । पाँच लाख गये तो क्या हुआ ? तुम्हारे पास पाँच लाख तो हैं न? एक दिन तो तुम भिखारी थे, उसकी अपेक्षा तो आज तुम्हारे पास काफी हैं। क्यों दुःख करते हो ?” मित्र के समझाने से भिखारी चिन्ता से मुक्त हो गया । दुःख को भी सुखरूप बनाकर जीवनयापन करने लगा । निष्कर्ष यह है कि रति - अरति में भी परिवर्तन होता रहता है। आत्मार्थी व्यक्ति दोनों ही परिस्थितियों में इन दोनों से पर होकर सोचना चाहिए. और दुःख को सुखरूप में बदल देना चाहिए । '
वस्तुस्वरूप का ज्ञान होने से रति- अरतिभाव नहीं होता
वह
किसी
जिसको द्रव्य का यह उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मक स्वरूप हृदयंगम हो जाता है, वस्तु के बनने, रहने या नष्ट होने, वियोग होने अथवा किसी प्रियजन के जन्म और मरण के अवसर पर रति- अरतिभाव नहीं लाता, वह तटस्थ रहकर वस्तु के संयोग-वियोग से हर्ष - शोक नहीं करता। वह समभाव में स्थित रहता है और संवर का लाभ अर्जित कर लेता है ।
एक धनिक श्रावक का इकलौता लड़का जवानी में ही चल बसा। उस दिन घर में मेहमान आये हुए थे। सेठ ने मेहमानों से कहा - " आप सभी यहाँ के मन्दिरों में तथा उपाश्रयों में दर्शन तथा प्रवचन - श्रवण कर आइए। मुझे एक आवश्यक कार्य है।” मेहमान दर्शन-श्रवण करने चले गए। उधर उक्त श्रावक कुछ साथियों के साथ पुत्र के शव को लेकर श्मशान पहुँचे, वहाँ उसका दाह-संस्कार करके वापस लौटे। मेहमानों को उसकी जरा भी गन्ध नहीं मिली। उनके द्वारा पूछे जाने पर आपका क्या अनिवार्य कार्य था ? श्रावक जी ने कहा - " एक मेहमान को जाना था, उसे पहुँचाने गया था।” दो-तीन दिन बाद सेठ जी को आश्वासन देने कुछ लोग पहुँचे । उन्होंने कहा- “आप तो कहते थे कि एक मेहमान को पहुँचाने गया था, किन्तु हमने सुना है कि आपका इकलौता लड़का चल बसा है। सत्य क्या है ?” श्रावक ने कहा - " दोनों ही बातें सत्य हैं। दोनों बातों का स्वरूप और अर्थ एक ही है। मेरे घर में पुत्र का जन्म हुआ, अर्थात् एक मेहमान मेरे घर में आया । वह कुछ वर्षों के लिये ही आया था। उसकी अवधि ( आयुष्मर्यादा) पूरी होते ही वह चला गया, अर्थात् वह मेहमान इतने समय तक मेरे घर में रहा। अब जब वह विदा हुआ तो मैं उसे श्मशान तक पहुँचाने गया । आखिर संसार में सभी परिवारों में मेहमान आते हैं और एक दिन चले जाते हैं, जब जाते हैं तो हम पहुँचाने जाते हैं । " लोगों
१. 'पाप की सजा भारी, भा. २' से भाव ग्रहण, पृ. ९५१, ९५२, ९५४, ९५६