Book Title: Karm Vignan Part 06
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 516
________________ ४९६. कर्मविज्ञान : भाग ६ उद्गम स्थान तो एक ही वस्तु या व्यक्ति है। इसके अतिरिक्त रति-अरति दोनों एक ही वस्तु में अनुकूलता और प्रतिकूलता से उत्पन्न मानसिक कल्पना ही तो है। संयोग का वियोग होना अवश्यम्भावी है। जिस कारण या प्रसंग से किसी वस्तु या व्यक्ति के लिए मानसिक आनन्द उत्पन्न हुआ हो, उस कारण या प्रसंग के हट जाने से मानसिक निरानन्द (शोक), अप्रीति या दुःख भी होता है। आज या अभी जहाँ रति है, वहाँ कल या थोड़ी देर बाद अरति होते देर नहीं लगती। इसके विपरीत आज जहाँ अरति है, वहाँ कालान्तर से रति होते देर नहीं लगती। अतः इन दोनों का युगपद् संयोग-वियोग एक वस्तु, परिस्थिति या व्यक्ति के निमित्त से होने से ' सोलहवें पापस्थान के क्रम में दोनों को एक साथ रखा है। रति-अरति को पापस्थान क्यों माना गया ? एक प्रश्न यह भी होता है कि मन के अनुकूल परिस्थिति या संयोग में आनन्द और प्रतिकूल संयोग या परिस्थिति में दुःख होना स्वाभाविक है। यह तो वैचारिकभाव है। इसमें पाप कहाँ लगा, कैसे हुआ ? पापकर्म को बन्ध का कारण कैसे हो गया? इसका समाधान यह है कि आत्मा मूल में अनन्तज्ञानादि चतुष्टय से युक्त, अनावृत शुद्ध चेतन तत्त्व है, किन्तु वर्तमान में वह कर्ममल से अशुद्ध है, आवृत्त है, उसे इसी स्थिति में न रहने देकर कर्मबन्धन से मुक्त करके शुद्ध, बुद्ध, सर्वदुःखमुक्त, सिद्ध बनानी है । दुःखोत्पादक कर्मबन्ध का कारण पापप्रवृत्ति है। आत्मा कर्मक्षय के लिए जो भी प्रवृत्ति करती है, वह लाभदायक एवं धर्म है। इसके विपरीत कर्मबन्धकारक जो भी प्रवृत्ति करती है, वह अहितकारक है, जन्म-मरणरूप संसारवर्द्धक है, मोक्ष से दूर ठेलने वाली है । अनन्त सुख का स्वामी सच्चिदानन्द आत्मा जब अपना शुद्ध स्वरूप भूलकर या छोड़कर प्रमादवश या मोहवश जब किसी पर-पदार्थ, पर-भाव या बाह्य व्यक्ति व परिस्थिति में सुख मानने की भ्रान्ति पालता है, रागी बनता है, तब कर्मबन्ध होता है । इसलिए रति- अरति आदि को पापस्थान (पापकर्मबन्ध के कारणभूत स्रोत) बताया गया है। क्या बाह्य पर-पदार्थ या व्यक्ति परिस्थिति-विशेष में रति-अरति रखना क्या स्वगुणोपासना या कर्मक्षय में आत्मा का सहायक बनेगा ? क्या रति- अरति आत्मा को मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर करेगी ? अतः आत्मा के लिए अहितकर होने से इसे पापस्थान बताया है । ' रति -अरति के साथ अनेकविध पापकर्मों का संचय व्यावहारिक दृष्टिकोण से सोचें तो भी रति- अरति के कारण अनेकविध पापकर्मों का संचय एक व्यक्ति के जीवन में हो जाता है। मान लो, किसी व्यक्ति ने १. पाप की सजा भारी, भा. २' से भावांश ग्रहण, पृ. ९५५, ९५०, ९५१

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