Book Title: Karm Vignan Part 06
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 514
________________ ॐ ४९४ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ * चिन्तन से मानव-मन में उत्पन्न होती है, फिर पाने की उत्सुकता जागती है, उसके लिए मनुष्य अनिष्टकर उपाय सोचता है, जिससे पापकर्म का बन्ध होता है। इसी कारण रति-अरति को पापस्थान कहा गया है। पौद्गलिक पदार्थ के बनने-बिगड़ने से रति-अरतिभाव । मूल में, रति के पीछे सुख की लालसा रहती है और अरति के पीछे दुःखनिवृत्ति की तमन्ना। अज्ञानी जीव मनःकल्पित सांसारिक सुख कैसे मिले और दुःख कैसे मिटे? इसी उधेड़बुन में लगा रहता है। अज्ञ जीव जिन भौतिकपौद्गलिक पदार्थों में सुख की कल्पना करता है, क्या वे वस्तुएँ सदा स्थायी रहती हैं ? सभी पौद्गलिक पदार्थ नाशवान हैं, क्षणिक, सड़न-गलन-विध्वंसन स्वभाव वाले हैं। रति-अरति वस्तु में इसी मनःकल्पित सुख-दुःख की कल्पना से प्रादुर्भूत होती है। मान लीजिए-एक व्यक्ति अमेरिका से दो सौ रुपये का मनोरम्य फूलदान लाया। उसे देखकर तथा उसकी प्रशंसा के साथ ही अपनी तारीफ सुनकर वह बहुत ही खुश होता था। अपने मुँह से भी आसक्तिवश उस फूलदान की प्रशंसा कर रहा था। दुर्भाग्य से तीसरे ही दिन पुत्र के हाथ से अचानक वह छिटककर गिर पड़ा और फूट गया। आखिर तो वह जड़ व नाशवान वस्तु थी, फूट गई। एक दिन विनष्ट होने वाली थी ही। अन्तर इतना ही रहा कि जो कुछ अर्से बाद नष्ट होने वाली थी, वह तीसरे दिन ही नष्ट हो गई। अब सोचिए कि वह व्यक्ति पहले दिन उस फूलदान को देख-देखकर मन में उसके प्रति ‘रति' (रागभाव) कर रहा था, उसमें सुख मान रहा था, अब उसके फूटते ही उसकी खुशी क्यों गायब हो गई? उसके मन में अरति (ग्लानि) क्यों पैदा हुई? वस्तु तो नाशवान क्षणिक थी ही। एकमात्र आत्म-तत्त्व के सिवाय शेष सभी पौद्गलिक पदार्थ विनश्वर हैं, क्षणिक हैं, यह जानते हुए भी जीव मोहदशावश अज्ञान के कारण पदार्थ को लेकर मन से रति-अरति करता है। विनाशी जड़ पुद्गल के बनने और बिगड़ने, जुड़े रहने और फूटने की प्रक्रिया पर वह राजी और नाराज होता है, क्या यह विपरीत दिशा का प्रयत्न नहीं है? कोई भी पौद्गलिक जड़ पदार्थ सुन्दर, इष्ट, प्रिय या अनुकूल लगा तो अज्ञ मनुष्य प्रसन्नता से झूम उठता है और वही पदार्थ बिगड़ा, टूटा-फूटा या विकृत हो गया तो अप्रिय, प्रतिकूल, अनिष्ट या खराब लगा तो नाराज हो जाता है, यह आत्मा के अखण्ड अव्याबाध सुख को भूलकर पौद्गलिक जड़ पदार्थों में सुख-दुःख की कल्पना करके आत्मा को व्यर्थ ही दुःखी करने का प्रयत्न है। यों रति-अरतिभाव करके आत्मा को आर्तध्यान में डालना है। स्पष्ट है कि रति-अरतिभाव पदार्थों का सही तत्त्वज्ञान न होने से, यथार्थ वस्तुस्वरूप नं जानने १ ‘पाप की सजा भारी, भा. २' से भावांश ग्रहण, पृ. ९३९

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