Book Title: Karm Vignan Part 06
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 513
________________ * अविरति से पतन, विरति से उत्थान - २ ४ ४९३ पदार्थों में सुख मानना और प्रतिकूल पदार्थों में दुःख मानना रति- अरति का अभिप्राय है । ' रति-अरति पापस्थान मनःकल्पित है, मनोगत है रति -अरति के शब्दार्थ पर से स्पष्ट है कि ये दोनों मन से उत्पन्न होने वाले पापस्थान हैं। मन के द्वारा की हुई कल्पना से ही इन दोनों का उद्गम होता है । जैसा कि महामहोपाध्याय श्री यशोविजय जी महाराज कहते हैं "मन-कल्पित रति-अरति छे जी, नहीं सत्य पर्याय । नहीं तो बेची वस्तुमांजी, किम ते सबि मिट जाय ॥२ अभिप्राय यह है कि रति- अरति ये दोनों मनःकल्पित हैं, क्योंकि किसी भी ( सजीव-निर्जीव पर ) पदार्थ में अपने आप में न तो रति रहती है और न ही अरति । न ही ये द्रव्यगुण- पर्यायरूप हैं । यदि ऐसा न होता तो जिस वस्तु में पहले सुख की लालसा (रति) उत्पन्न हुई थी, उसी वस्तु को दूसरे को बेच देने से वह (रति) कैसे मिट ( नष्ट हो ) जाती है ? यदि रति- अरतिभाव मनोगत न होते, सिर्फ वस्तुगत ही होते तो वस्तु में ही सदैव रहते, फिर तो किसी वस्तु को अन्य को देने-बेचने का व्यवहार न होता । किन्तु वस्तु पर चाहे जितना रागभाव - रतिभाव हो, जरूरत पड़ने पर वही वस्तु जब दूसरे को बेच दी जाती है, तब उस वस्तु पर : से रतिभाव नष्ट हो जाता है । इसलिए रति- अरति पापस्थान मन की कल्पना की उपज है, मात्र मान से माने हुए हैं। रति -अरति तत्त्वविरुद्ध चिन्तन अशुभ चिन्तन से होती है वस्तुतः रति-अरति, ये दोनों आर्त्तध्यान - रौद्रध्यान के ही पर्याय हैं। बुरे विचारों को सुख, सन्तोष और आनन्द का कारण मानकर जब मनुष्य उनमें मन को एकाग्र करता है, तब अशुभ ध्यान होता है, जिसके ये दो प्रकार हैं । फिर मनुष्य जैसा सोचता है, तदनुसार उसकी प्रवृत्ति या क्रिया भी करता है। चिन्तन खराब हो, आत्म-भावों से विपरीत हो, वहाँ प्रवृत्ति शुभ कैसे हो सकती है ? यही कारण है कि रति-अरति तत्त्व से विपरीत चिन्तन से, दुःख के कारणों में सुख मानने से, विकृत = १. (क) रमणं रतिः, रम्यतेऽनया विषयासक्तजीवेनेति रतिः । (ख) जेसिं कम्मक्खंधाणमुदएण दव्व - खेत्त-काल-भावेसु रदी समुप्पज्जइ, तेसिं रदित्ति सण्णा; दव्व-खेत्त जे सिमुदएण जीवस्स अरइ समुप्पज्जइ, से सिमरदित्ति सण्णा । - धवला ६/१/९/२४ (ग) पाप की सजा भारी, भा. २' से भावांश ग्रहण, पृ. ९३८ २. 'रति - अरति पापस्थान की सज्झाय' से भाव ग्रहण

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