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* अविरति से पतन, विरति से उत्थान-२ ® ४९१ ॐ
दोष एवं अवगुण से भरा है, तो कोई अधिक दोष से युक्त है। इसलिए संवरसाधक को पर-दोषों या पर-अवगुणों से एकदम दृष्टि हटाकर स्व-दोषों और दुर्गुणों की ओर ही नजर डालनी चाहिए।' पर-निन्दा के पापकर्म को आते हुए रोकने का यही सर्वोत्तम उपाय है कि व्यक्ति पर-निन्दा से दृष्टि-वृत्ति हटाकर आत्म-निन्दा, आत्म-सुधार एवं आत्म-शुद्धि में प्रवृत्त हो।
आत्म-निन्दा करने का उत्तम तरीका आत्म-निन्दा (पश्चात्ताप) के द्वारा पर-निन्दा से व्यक्ति कैसे हटे? इसके लिए अध्यात्म-साधक श्री विनयचन्द जी का यह भजन अतीव प्रेरणादायक है
"रे चेतन ! पोते तू पापी, परना छिद्र चितारे तू। निर्मल होय कर्म-कर्दम से, निज-गुण-अम्बु नितारे तू॥टेर॥ जिम तिम करने शोभा अपनी, या जग माँही वधारे तू। प्रगट कहाय धर्म को धोरी, अन्तरभर्यो विकारे तूरे चेतन.॥ परनिन्दा-अघपिण्ड भरीजे, आगम-साख सँभारे तू।
'विनयचन्द' कर आतम-निंदा, भव-भव दुष्कृत टारे तू॥रे चेतन.॥" .. ___ इस भजन में पर-निन्दा को छोड़कर आत्म-निन्दा पर जोर दिया गया है। इसलिए प्रत्येक साधक को प्रतिक्रमण आवश्यक के दौरान अपनी गलतियों, विराधनाओं और दोषों को पहले क्षमापना-जल से धोकर आलोचना (प्रतिक्रमण), निन्दना (आत्म-निन्दा = पश्चात्ताप) और गहणारे के तौलिये से मन-वचन-काया को रगड़कर साफ कर लेना चाहिए।
विधिवत् आत्म-निन्दा से आत्म-शुद्धि आचार्य रलाकरसूरि जी म. ने अपने जीवन में आने वाले पापकर्मों को रत्नाकर-पच्चीसी के माध्यम से आत्म-निन्दा (पश्चात्ताप) के रूप में भगवान के समक्ष प्रगट कर दिये। इसी प्रकार परमार्हत् कुमारपाल राजा ने भी स्वयं द्वारा निर्मित 'आत्म-निन्दा द्वात्रिंशिका' के माध्यम से प्रभु के समक्ष आत्म-निन्दापूर्वक अपने पापों के लिये क्षमायाचना की थी। अतः आत्मार्थी, कर्मक्षयार्थी मुमुक्षु साधक पर-निन्दा से सर्वथा विमुख होकर मन-वचन-काया से हुए पापों की त्रिविधरूप से
१. 'पाप की सजा भारी, भा. २' से भाव ग्रहण, पृ. १००५, १०१७ . २.. (क) विनयचन्द चौबीसी के अन्त में (प्रकाशक-छोटेलाल यति, बीकानेर) (ख) एवमहमालोइय-निंदिय-गरहिय-दुगंछियं सम्म।
तिविहेण पडिक्कतो, वंदामि जिणचउवीसं॥ -आवश्यकसूत्र में क्षमापना पाठ