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४८८ कर्मविज्ञान : भाग ६
प्रतिक्रिया होती है, परस्पर तनातनी, मारपीट और कभी-कभी झगड़ा एवं वैर-विरोध भी बढ़ जाता है। आगे समयसुन्दरगणी कहते हैं- “ निंदा करे ते थाये नारकी रे, तप-जप कीधुं सहु जाय रे । " - निन्दक और पर-परिवादी मानव यहाँ भी अशान्ति, बेचैनी, पापकर्म-परायण बनता है और परलोक में भी भयंकर दुर्गतिदुर्योनि पाता है। इसका कारण यह है - निन्दक प्रायः असत्य का सहारा लेता है, दूसरे की उन्नति से उसे ईर्ष्या, द्वेष, बुद्धि होती है, वह दोषदर्शी होता है, ये सब दुर्गुण दुर्गति में ले जाने वाले हैं। दुर्गति में निंदक को भयंकर यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। यह स्पष्ट है कि निन्दक व्यक्ति किसी के विषय में पूर्वाग्रहवश बिना सोचे-समझे या निर्णय किये प्रायः क्रोधादि कषायाधीन होकर दुष्ट, दुर्जन, लंपट या कुशील कह देता है तथा विपरीत रूप में किसी बात को प्रस्तुत करने हेतु निन्दक अपनी तरफ से नमक-मिर्च लगाकर बात को विकृत कर देता हैं। इसलिए पर-निन्दा से श्रावक को सत्य- अणुव्रत के 'सहसब्भक्खाणे, रहस्सब्भक्खाणे' नामक अतिचार (दोष) भी लगते हैं। देवाधिदेव वीतराग परमात्मा, धर्म-गुरु (साधु-साध्वी) और धर्म (अहिंसादि धर्म) की निन्दा करने से तो सम्यक्त्व दूषित होता है, दर्शनमोहनीय कर्म का बन्ध होता है, वह निन्दक मिथ्यात्व का शिकार बनता है।
विविध धर्मों का इतिहास उठाकर देखें तो आपको मालूम हो जायेगा कि संसार में ऐसे कई पापी, दुर्जन, दुष्ट, डाकू, हत्यारे, चोर आदि थे, वे अपने प्रति जब जाग्रत हुए तो किसी के द्वारा अपनी निन्दा, आलोचना आदि सुनकर सुधर गए, महान् आत्मा धर्मात्मा बनकर अथवा साधु बनकर मोक्षगामी हो गए, कई उच्च देवलोक में गए।' किन्तु उनकी निन्दा करने वाला तो वहाँ का वहाँ ही रहा, वह चार गतिरूप संसार में अथवा दुर्गति में परिभ्रमण करता रहा। इसलिए निन्दक अपने जीवन में व्यर्थ ही विभिन्न पापकर्मों से लिप्त हो जाता है।
वीतराग परमात्मा की महानिन्दा, धर्मनिन्दा और गुरुनिन्दा के दुष्परिणाम
इसमें वीतराग जिनेश्वर परमात्मा की निन्दा तो महानिन्दा है, जिससे व्यक्ति के नीचगोत्र कर्म का बन्ध होकर नीच कुल में उत्पत्ति होती है । कहा भी है
“जिनवरने निंदतां नीचगोत्र बंधाय ।
नीचकुलमा अवतरी कर्म-सहित ते थाय ॥"
गोत्र में जन्म की पहचान के विषय में एक आचार्य ने कहा“चाण्डाल-मुष्टिक-व्याध-मत्स्यबन्ध- दास्यादिभाव-सम्पादकत्वं नीचगोत्रस्य लक्षणम् । ”
१. 'पाप की सजा भारी, भा. २' से भावांश ग्रहण, पृ. ९८२