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® अविरति से पतन, विरति से उत्थान-२ ® ४८७ 8 .
कल्पित करके प्रगट करने से तथा अपने अविद्यमान गुणों को प्रकाशित करने से नीचगोत्र कर्म का बन्ध होता है। 'स्थानांगसूत्र' की टीका में ‘पर-परिवाद' का अर्थ किया है-"दूसरों का परिवाद, अर्थात् विकत्थन या विपरीत वाद-पर-परिवाद है।" 'सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार पर-निन्दा (पर-परिवाद) का अर्थ है-“दूसरे के सच्चे या झूठे दोषों को (द्वेष या वैर-विरोधवश अथवा ईर्ष्यावश) प्रकट करने की इच्छा।"१ पर-निन्दा का यह पाप आजकल सम्प्रदायों और पंथों में बहुत जोर-शोर से चल रहा है। साम्प्रदायिकता से ग्रस्त लोगों को यह पता भी नहीं रहता है कि हमें जिस पापस्थान का तीन करण तीन योग से त्याग करने का भगवान का आदेश है, उसकी अवहलेना करके हम क्यों अपने जीवन पर पापकर्म का बोझ लाद रहे हैं ? वस्तुतः दूसरे की निन्दा वही करता है, जो स्वयं कुछ सत्कार्य कर नहीं पाता।
पर-निन्दा के साथ कई दुर्गुण, कई पापस्थानों की वृद्धि पर-निन्दा भी एक प्रकार का व्यसन है। जिसको यह व्यसन लग जाता है, उसे इन पापी व्यसन को छोड़ना कठिन हो जाता है। पर-परिवाद में मिथ्यात्व का अंश भी आ जाता है। जो जैसा है, उसे वैसा न कहकर विपरीत रूप में मानना, जानना, देखना, कहना ये मिथ्यात्वी के लक्षण हैं और प्रायः ये ही लक्षण पर-परिवादपापस्थान से ग्रस्त व्यक्ति में पाये जाते हैं। पर-निन्दक छिद्रान्वेषी भी होता है। बगुले की तरह उसका ध्यान प्रायः किसी के दोष देखने (पकड़ने) में रहता है। कौआ या मक्खी जैसे जानवर अच्छी चीज में मुँह न डालकर विष्टा या गंदे मैल, थूक, वलगम पर डालता है, वैसे ही निन्दक दूसरों के गुणों को न छोड़कर दोषों-दुर्गुणों में मुँह डालता है। जैसे हाथी अपनी ही सूंड़ से अपने सिर पर धूल डालता है, वैसे ही निन्दक भी दूसरे के दोषों की निन्दा अपने मुख से करके उसके दोषों का भार अपने सिर पर डालता है। मुनि समयसुन्दरगणी ने ठीक ही कहा है. . “निन्दा न करशो कोइनी पारकी रे, निंदामां बहोला महापाप रे। ..
वैर-विरोधं बाधे घणो रे, निन्दा करतो न गणे माय ने बाप रे॥"... • भाव स्पष्ट हैं। निन्दा किसी को भी रुचिकर और प्रिय नहीं होती। इसलिए कोई जब किसी की निन्दा करता है, तो सामने वाले के दिल में आवेशयुक्त १. (क) सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं।
जेउ तत्थ विउस्संति, संसारे ते विउस्सिया। -सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. १, उ. २/२३ . (ख) परात्मनिन्दा-प्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य। -तत्त्वार्थसूत्र ६/४९ (ग) परेषां परिवादः = विपरीतवादः, पर-परिवादो विकत्थनमित्यर्थः।।
-स्थानांगसूत्र टीका, सू. ४८-४९ . (घ) तथ्यस्य वा ऽतथ्यस्य वा दोषस्योद्भावनाप्रति इच्छा निन्दा। -सर्वार्थसिद्धि ६/२५/३३९