Book Title: Karm Vignan Part 06
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

Previous | Next

Page 500
________________ ४८० कर्मविज्ञान : भाग ६ है - "जर ( धन या जेवर, जवाहरात) जमीन ने जोरू, ए त्रणे कजिया ना छोरू ।” कभी-कभी भाई-भाई में, भाई-बहनों में, पिता-पुत्र में आए दिन प्रायः इन्हीं निमित्तों को लेकर घोर कर्मबन्धक, वैर-परम्परावर्द्धक कलह ठन जाता है। परन्तु जहाँ कलह होता है, वहाँ लक्ष्मी निवास नहीं करती।' कलह के कारण आर्त्त- रौद्रध्यानवश शुभ लेश्या, शुभ चिन्तन, शान्ति और सन्तोष से युक्त जीवन नहीं रहता। परलोक में तीव्र कलह नामक पापकर्म के कारण व्यक्ति को दुर्गतियों में भयंकर दुःख भोगने पड़ते हैं। कई स्त्रियाँ और कई पुरुषों को एक-दूसरे को भिड़ाकर पारस्परिक कलह करा देते हैं, इससे उनमें वैर-परम्परा बढ़ती है। कलहकारी का सन्तोष धन नष्ट हो जाता है । वह सदा चिन्ता, सन्ताप, आर्त्त- रौद्रध्यान की अशुभ विचारधारा में बहता रहता है। कलह से बचने के लिए सुन्दर सुझाव कलह स्व की छोड़कर पर की ओर देखने से होता है । इसलिए कलह से बचने के लिए व्यक्ति को दूसरे के अवगुण, दोष, छिद्र की ओर नहीं देखना चाहिए। कलह का प्रसंग उपस्थित होते ही या तो मौन कर लेना चाहिए या फिर समताभाव, शान्ति और धैर्य रखना चाहिए । प्रतिदिन क्षमा पन्ना और मैत्रीभाव का अभ्यास करना चाहिए। बोलते समय छोटे-बड़े की मर्यादा, विनय, विवेक, वाक्-संयम आदि का ध्यान रखना चाहिए । गम्भीरता और सहन-शक्ति बढ़ानी चाहिए। मन को समझाना चाहिये कि यदि किसी ने तुझे गधा या बंदर कह दिया तो क्या तू उसके कहने से गधा या बंदर बन गया ? इस प्रकार प्रत्येक बात में दूसरे के कथन की ओर न देखकर अपनी आत्मा की ओर देखने से सहनशीलता, समता और धैर्य बढ़ेंगे; निरर्थक बोलना कम हो जाएगा, यही कलह - शान्ति का, कलह से होने वाले अशुभ कर्म (आनव) के विरोध का राजमार्ग है। दूसरों के प्रति सद्भाव रखने और उन्हें आत्म-भाव से देखने से भी कलह नहीं होता । २ अभ्याख्यान भी पर-दोषदर्शन से होता है 'अभ्याख्यान' नामक तेरहवाँ पापस्थान भी पर - दोषदर्शन से होता है। जब आत्मा (जीव) अपना दोष न देखकर पर-दोषों को देखने लगता है, तब स्वाभाविक ही वह राग-द्वेष या कषाय से लिप्त हो जाता है । जैसे- पीलिया रोग से ग्रस्त रोगी की आँखें, उसके दोष के कारण विपरीत ही देखती हैं, तदनुसार उसकी जिह्वा भी सहसा पर-दोषारोपण नामक अभ्याख्यान करती है, वहाँ किसका रोग है ? आँख १. 'पाप की सजा भारी, भा. २' से भाव ग्रहण, पृ. ८२४-८३६ २ . वही, पृ. ८६८-८६९

Loading...

Page Navigation
1 ... 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550