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ॐ अविरति से पतन, विरति से उत्थान-२ ॐ ४८३ ॐ
पर व्यक्ति मंदमति, मूढ़, अज्ञानी, मुखरोगी, कुष्टरोगी, निन्दनीय, अनादरणीय बनता है। मोहनीय कर्म के उदय से तीव्र कषायी और अन्तराय कर्म के उदय से शक्तिहीन, सत्कार्य में विघ्न-बाधाओं से ग्रस्त, त्याग-व्रत-प्रत्याख्यानादि करने में अशक्त बनता है। वैर-परम्परा को भी बढ़ाता है। अतः अभ्याख्यान से बचने के लिए दोषदृष्टि छोड़कर गुणदृष्टि का, अन्धकार का पहलू छोड़कर प्रकाश का पहलू, सद्भावना और सद्वृत्ति का ग्रहण और आश्रय लेना चाहिए। व्यर्थ के वितण्डावाद में, साम्प्रदायिक कदाग्रह, हठाग्रह और पूर्वाग्रह में नहीं पड़ना चाहिए। स्वयं में विनम्रता, गुणग्राही, सत्यग्राही दृष्टि और प्रत्येक वस्तु के सारासार का, सत्यासत्य का निर्णय करने की अनेकान्त दृष्टि सापेक्ष दृष्टि होगी तो वह व्यक्ति अभ्याख्यान नामक पापस्थान से बच जाएगा।
पैशुन्य नामक पापस्थान : क्या और क्यों होता है ? इसके पश्चात् पैशुन्य नामक पापस्थान है, वह भी दूसरों को सम्यग्दृष्टि से, आत्मदृष्टि से न देखने पर ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य, परोत्कर्ष के अदर्शन से होता है। पैशुन्य का अर्थ है-चुगली खाना। इसका लक्षण एक आचार्य ने किया है-“पैशन्यं पिशुनकर्म = प्रच्छन्नं सदसद्दोषाविर्भावन्।"१-पैशुन्य का अर्थ है-पिशुनकर्म, अर्थात् किसी के सच्चे-झूठे अनेक दोषों को पीठ पीछे (उससे छिपाकर) प्रगट करना।
अभ्याख्यान और पैशुन्य में अन्तर ___ अभ्याख्यान और पैशुन्य में पापकर्म एक सरीखा होते हुए भी दोनों की प्रक्रिया में अन्तर होने से दोनों को अलग-अलग पापस्थान कहा गया है। अभ्याख्यान की व्युत्पत्ति है-“अभिमुखेन आख्यानं (पर) दोषाविष्करणमभ्याख्यानम्।"२ अर्थात् अभिमुख = सामने किसी के दोषों (सच्चे या झठे) का प्रकटीकरण करना अभ्याख्यान है। जबकि पैशुन्य में दूसरे पर पीठ पीछे दोषारोपण करना होता है। दूसरे व्यक्ति में जो गुण है, उसे छिपाना और दोषों को (भ्रान्ति या मूढ़तावश) प्रगट करना, जो दोष नहीं, उन दोषों को भी कहना, परस्पर लड़ा-भिड़ा देना, झगड़ा पैदा करा देना, ये वृत्तियाँ दोनों में समान हैं। अभ्याख्यान में सहसा सीधा आरोप = कलंक लगाया जाता है, जबकि पैशुन्यवृत्ति वाला पीठ पीछे कानाफूसी करके किसी की भूलों या गुणों को भी दोष के रूप में प्रगट करता है। वह सामने नहीं आता। पैशुन्य (चुगली) किसी के पीठ का माँस खाने जैसा पाप है। 'दशवैकालिक' में कहा है-"पिट्ठीमंसं न खाएज्जा।"
-स्थानांग टीका, सू. ४८-४९
१. पैशुन्यं पिशुनकर्म = सदसद्-दोषाविर्भावनम्। २. भगवतीसूत्र, श. ५, उ. ६ टीका