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ॐ परीषह - विजय: उपयोगिता, स्वरूप और उपाय ३५१
अपितु पूर्वबद्ध कर्मों से छूटने और नये कर्मों को आते हुए रोकने का भी विधान है। जैनदर्शन के मूर्धन्य तात्त्विक ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र में परीषह - सहन करने के दो उद्देश्य बताते हुए कहा गया है
“मार्गाच्यवन-निर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः ।"१
परीषह सहन करने का प्रथम उद्देश्य है - मार्गाच्यवन । जो रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग अथवा सर्वथा कर्ममुक्तिरूप मोक्षमार्ग या वीतरागता का जो मार्ग अंगीकृत किया है, उससे च्यवन-स्खलन न हो, उसमें स्थिर बने रहना। दूसरा उद्देश्य है - निर्जरा । निर्जरा (आंशिकरूप से पूर्वबद्ध कर्मों के क्षय) के लिए परीषह सहन करना चाहिए।
व्यक्ति को अपने स्वीकृत पथ पर डटे रहने की क्षमता प्राप्त हो जाए और पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा हो जाए, इन दोनों उद्देश्यों के लिए परीषह - सहन करना चाहिए। साधक के सामने यदि ये दोनों उद्देश्य स्पष्ट हों तो भयंकर से भयंकर अनुकूल या प्रतिकूल कष्ट (दुःख) आं पड़ने पर भी वह रोयेगा नहीं, व्यथित और उद्विग्न नहीं होगा। वह यही सोचेगा कि मेरे पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा हो रही है, मेरी आत्मा में जो अनन्त शक्ति सोई पड़ी है, उसका कुछ हिस्सा भी बाहर प्रकट हो रहा है, आत्मा के अन्तर में आनन्द का सागर लहरा रहा है, उसका थोड़ा-सा अंश भी अभिव्यक्त होता है तो साधक कष्ट को कष्ट न मानकर उसे आनन्दपूर्वक सह लेता है । शान्ति और धैर्य के साथ दुःख को झेल लेता है। अतः आत्मा की आन्तरिक शक्ति जगाने और आन्तरिक आनन्द की अनुभूति कराने में परीषहसहन की साधना वरदानरूप है। अगर परीषह-सहन के ये उद्देश्य और लाभ स्पष्ट न हों तो स्वीकृत पथ पर चलने में थोड़ी-सी कठिनाई आई कि व्यक्ति उससे - विचलित, भ्रष्ट या उसे छोड़ने को उद्यत हो जाता है।
परीषह-सहन से शक्ति का प्रगटीकरण
आत्मा की सुषुप्त अनन्तशक्ति का बहुत बड़ा अंश सहिष्णुता के द्वारा प्रकट होता है। परीषह-सहन क्षमता ( तितिक्षा) एक प्रकार की शक्ति ज्वाला की लौ है, जिसके द्वारा साधक का जीवन आलोकित होता है । जिसमें परीषह - सहन करने की चेतना जाग्रत नहीं होती, उसके जीवन में ज्ञान का प्रकाश नहीं हो पाता । जिसे अपने जीवन को उज्ज्वल प्रकाश से भरना है, उसे परीषह- सहिष्णु बनना होगा । परीषह-सहिष्णुता के साथ-साथ मनोबल, धृतिबल और अभयबल का भी विकास होता है।
१. तत्त्वार्थसूत्र, अ. ९, सू. ८