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४२४ कर्मविज्ञान : भाग ६
वह मस्ती से आनन्दपूर्वक जीवन जीता है । जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक वस्तुएँ . न मिलने पर भी वह दुःखी नहीं होता ।
अज्ञानादि जीवन जीने वाला दुःखी है
युआनसीन नामक दार्शनिक साधक से एक दिन 'लू नगर' निवासी एक धनिक ‘सीकुंग’ अपनी बग्घी में बैठकर मिलने हेतु चल पड़ा। युआन्सीन एक छोटी-सी कुटिया में रहता था । उसकी कुटिया से पहले गली बहुत सँकरी थी, अतः सीकुंग को पैदल चलना पड़ा। युआनसीन को पता चला तो वह उक्त धनिक का स्वागत करने हेतु कुटिया से बाहर निकला । सीकुंग ने देखा कि युआनसीन एक फटा-सा कमीज और पत्तों की बनी टोपी पहने आ रहा है। उन्हें देखते ही वह धनिक बोला- “आप तो अभावग्रस्त जीवन जी रहे हैं, बहुत ही दुःखी और गरीब नजर आ रहे हैं।” युआनसीन ने मुस्काराते हुए जवाब दिया- "सीकुंग ! यह तुम्हारी गलत धारणा है। मैं अभावयुक्त हूँ, गरीब हूँ, पर दुःखी कतई नहीं हूँ । दुःखी वह होता है, जो अज्ञान, अन्ध-विश्वास, मिथ्यादृष्टि एवं अविरति का जीवन जीता है। मैं अज्ञानादि का जीवन कतई नहीं जीता।” १
सुविधाओं से सुख मिलता है, यह भ्रान्ति है
सर्वप्रथम तो इस भ्रान्ति को तोड़ना आवश्यक है कि सुविधा से या सुविधाजनक साधनों से सुख हो ही जाएगा। कई बार तो सब प्रकार के साधनों के होते हुए भी रोग, शोक, संकट आदि कारणों से सुखानुभव नहीं होता । कई बार सुविधा न होते हुए भी सुखानुभव होता है। सुविधा और सुख में कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है। सुविधा का सम्बन्ध पदार्थों से है और सुख-दुःख का सम्बन्ध मानव के द्वारा होने वाले प्रिय-अप्रिय या मनोज्ञ - अमनोज्ञ संवेदन से है अथवा एक वीतराग या वीतरागता-पथ के अनुगामी साधक को सुविधा न होने पर भी अथवा स्वेच्छा से सुविधाजनक अमुक पदार्थों का त्याग करने पर भी आत्मिक सुख-शान्ति की अनुभूति होती है । स्वेच्छा से त्याग करने वाला व्यक्ति उक्त पदार्थों या सुविधाओं के न मिलने पर भी शान्ति और सन्तोष का जीवन जी सकता है।
अमेरिका के समाजशास्त्रियों का कथन है कि वहाँ अधिकांश व्यक्तियों के पास प्रचुर धन, भोगोपभोग के साधन और सुविधा हैं; फिर भी उन्हें मानसिक सुख-शान्ति नहीं है, जबकि भारतवर्ष के किसान एवं श्रमजीवी वर्ग के अधिकांश व्यक्ति अल्पतम साधन, धन और सुविधा होते हुए भी बाह्य सुखानुभूति में उनसे आगे हैं। हालांकि स्वेच्छा से त्याग या विरति उनमें नहीं है।
१. 'सोया मन जाग जाए' (आचार्य महाप्रज्ञ) से भाव ग्रहण, पृ. ४७