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ॐ ४७२ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ *
कहा भी है-“जिनकी बुद्धि मूर्छा से आच्छादित है, उनके लिए सारा जगत् परिग्रह है, किन्तु जिस साधक की बुद्धि मूर्छा से रहित है, उसके लिए सारा जगत् अपरिग्रह है। अहंकार और ममकार के मोहयुक्त मंत्र (जप) ने ही जगत् की बुद्धि को अन्धा बना दिया है।"१ यही मंत्र नकारपूर्वक हो तो मोह विजयकारक बन सकता है। सम्यग्दृष्टि श्रमणोपासक वस्तुएँ रखते हुए भी, अन्तर से निर्लिप्त ... ___ यही कारण है कि गृहस्थ श्रमणोपासक को आवश्यकतानुसार कई वस्तुएँ. रखनी पड़ती हैं, किन्तु वह समय आने पर उन वस्तुओं का त्याग करते हुए परोपकारार्थ व्युत्सर्ग करते हुए भी या दान करते हुए भी नहीं हिचकता। सम्यग्दृष्टि श्रावक यह भलीभाँति समझता और मानता है कि ये बाह्य पुद्गल या शरीरादि भी तथा परिवार आदि भी मेरे नहीं हैं, मैं इनका नहीं हूँ। इन पुद्गलों या जीवों का मैं स्वामी नहीं हूँ, केवल अपनी जीवन-यात्रा के लिए इन्हें सहायक के रूप में स्वीकार किया है। इस दृष्टि से वह अपनी जमीन-जायदाद या माल-मिल्कियत का बाहर से संरक्षण, ग्रहण करता हुआ भी अन्तर से निर्लिप्त रहता है। जैसे-भरत चक्रवर्ती आदि के पास वैभव-सम्पत्ति या समृद्धि अपार थी, फिर भी वे उससे निर्लिप्त रहते थे।२ समय आने पर त्याग करते नहीं हिचके
आनन्द-कामदेवादि श्रमणोपासकों के पास जमीन-जायदाद, गोधन, खेती आदि पर्याप्त थी, परन्तु उन्होंने उनका तथा इच्छाओं का परिमाण (मर्यादा) कर लिया था, उससे अधिक आवश्यकताएँ नहीं बढ़ाईं। पूणिया श्रावक तो अपनी अत्यल्प आवश्यकता रखकर संतोषपूर्वक जीवनयापन करता था। यद्यपि पेथड़शाह पहले अत्यन्त निर्धन था, परन्तु उसने अपने परिग्रह का परिमाण कर लिया था। वह मर्यादा से अधिक सम्पत्ति बढ़ने नहीं देता था। तुरन्त धर्म आदि कार्यों में दान या
१. (क) मूच्छिन्नधियां सर्वं जगदेव परिग्रहः।
मूर्छया रहितानां तु जगदेवापरिग्रहः।। (ख) अहं ममेति मंत्रोऽयं मोहस्थो जगदान्ध्यकृत् । अयमेव हि नपूर्वो प्रतिमंत्रोऽपि मोहजित्॥
-ज्ञानसार २. (क) जे जे समदृष्टि जीवडा करे कुटुम्ब-प्रतिपाल। अन्तर से न्यारा रहे, ज्यों धाय खिलावे बाल ।
-बृहदालोयणा (ख) देखें-भरत चक्रवर्ती आदि की निर्लिप्तता का वृत्तान्त, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित, पर्व १ ३. इच्छापरिमाणं करेइ।
-उपासकदशांगसूत्र