Book Title: Karm Vignan Part 06
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 496
________________ ॐ ४७६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ * क्रोध होता है या मान होता है अथवा माया आती है अथवा लोभ सवार होता है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो जब अपने मन के, विचारों के या मान्यता के अथवा ममत्वपूर्वक माने हुए पदार्थ के प्रतिकूल होता है, अनुकूल नहीं होता, तब व्यक्ति में क्रोध, आवेश, द्वेष, रोष, वैर-विरोध आदि उत्पन्न होते हैं, आत्मा का चारित्र गुण दब जाता है, उसे उपेक्षित या विस्मृत कर दिया जाता है, ज्ञानगुण (ज्ञाता-द्रष्टा का गुण) भी पलायित हो जाता है। इसी प्रकार जब व्यक्ति अपने आत्म-स्वरूप या आत्म-भावों को भूलकर दूसरों को अपने से जाति, कुल, बल, रूप, तप; लाभ, ज्ञान (श्रुत), ऐश्वर्य, विद्या, बुद्धि, धन, भोगोपभोग के साधन आदि में हीन-न्यून देखता है, तब अहंकार का सर्प फुफकार उठाता है, मद के उन्माद में आकर दूसरों का तिरस्कार, अपमान और आशातना भी कर बैठता है। स्पष्ट है कि अहंकार की उत्पत्ति दूसरों (पर-पदार्थों) को देखने से होती है, इसी प्रकार हीनभावना की उत्पत्ति भी दूसरों को या दूसरों के ठाटबाट, सम्पत्ति, धन, ऐश्वर्य, तप, बल, श्रुतज्ञान, जाति, कुल, लाभ आदि को देखने से होती है। ये दोनों अहंकार (मान-कषाय) के ही दो पहलू हैं। मान-कषाय से जीव पापकर्मों से भारी होकर अधम गति को प्राप्त करता है। कहा भी है-“माणेण अहमा गई।" माया-कषाय का भी यही हाल है। छल, कपट, वंचना, धोखा, कुटिलता, वक्रता, ठगी, झूठ-फरेब आदि सब माया के ही रूप हैं। ये भी दूसरों (पर-भावों) की ओर देखने से होते हैं। माया नामक पापस्थान के कारण जीव कर्मों से भारी होकर अधोगति गमन करता है। ‘आचारांगसूत्र' के अनुसार-मायी और प्रमादी बार-बार माता के गर्भ में आता (जन्म-मरण करता) है। 'तत्त्वार्थसूत्र के अनुसारमाया (कपट या कुटिलता) तिर्यञ्चायु-बन्ध का कारण है। 'स्थानांगसूत्र' में स्पष्ट कहा है-जीव चार प्रकार से तिर्यञ्चायु कर्म का बन्ध करते हैं-(१) छल-कपट से, (२) छल को छल द्वारा छिपाने से, (३) असत्य भाषण (झूठ-फरेब) से, और (४) झूठे तौल-माप से। धर्माचरण आदि में भी वक्रता एवं माया रखने से स्त्रीपर्याय को प्राप्त होता है। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा-“मेधावी साधक अणुमात्र भी माया न करे।" माया के कटु परिणामों की ओर निर्देश करते हुए ‘सूत्रकृतांग' में कहा गया है-"जो यहाँ मायापूर्वक आचरण करता है, वह अनन्त बार जन्म-मरण करता है।" माया के बन्धन में व्यक्ति तभी ग्रस्त होता है, जब वह आत्मवान् नहीं होता, आत्मदृष्टि से विमुख होकर पर-भावों या रागादि विभावों की ओर दृष्टिपात करता है या रममाण होता है। १. (क) माई पमाई पुणरेइ गभं। (ख) माया तैर्यग्योनस्य। -आचारांग, श्रु. १, अ. ३, उ. १ -तत्त्वार्थ, अ. ६, सू. १७

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