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* ४७० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ®
संयोगवश सारा पासा उलट गया। अगले वर्ष अच्छी वर्षा हुई। किसानों के खेतों में : अन्न प्रचुर मात्रा में हुआ। तिलक सेठ के पास कोई अनाज खरीदने नहीं आया। दुर्भाग्य से वर्षा इतनी जोर की हुई कि सेठ के धान के सभी गोदामों में चारों तरफ पानी भर गया। सारा अनाज सड़ गया। लाखों रुपयों का नुकसान हो गया। इसी आर्तध्यानवश तीव्र अन्नासक्ति के कारण तिलक सेठ मरकर नरक में गया।
कहते हैं, सगर चक्रवर्ती के तीव्र कामभोगों में मूर्छा के कारण ६0 हजार पुत्र हो गए, फिर भी तृप्ति न हुई। फलतः तीव्र मूर्छा के कारण परिग्रही सगर मरकर नरक में गया।
पाटलिपुत्र का तत्कालीन धनलोलुप राजा नन्द त्रिखण्डाधिपति बनना चाहता था। उसने अन्याय-अनीति से तथा प्रजा पर विविध प्रकार के कर लगाकर काफी धन बटोरा। चारों ओर से सोना इकट्ठा करके खजाना भर दिया। प्रजा पर लगाए हुए अनावश्यक कर से प्राप्त धन से सोने की पहाड़ियाँ निर्मित करवा दीं। सोने की महरों और रुपयों के सिक्कों का प्रचलन बंद करवाकर चमड़े के सिक्के चलाए। ऐसी स्थिति में तीव्र लोभी स्वर्णासक्त नन्द राजा के शरीर में आग की तरह तीव्र वेदना उत्पन्न हुई। शरीर में अनेक महारोग पैदा हो गए। एक ओर वह इन भयंकर रोगों के कारण दुःखी था, दूसरी ओर-हाय मेरे एकत्रित सोने का क्या होगा? इसी आर्तध्यान से पीड़ित था, यों हाय-हाय करते हुए आत्म-ध्यान से सर्वथा विमुख होकर बेचारा नन्द राजा अधोगति में गया . परिग्रह पापकर्मबन्धक और दुःख का कारण
इस प्रकार मनुष्य जिस-जिस सजीव-निर्जीव वस्तु को ग्रहण करके आसक्तिपूर्वक रखता है, एक भी वस्तु पर 'मैं और मेरी' की छाप लगाता है, वह वस्तु उसके लिए पापकर्मबन्ध की कारण बन जाती है, जिसका फल भविष्य में नाना प्रकार के दुःखों के रूप में भोगना पड़ता है। ‘सूत्रकृतांगसूत्र' में इसी तथ्य को उजागर किया गया है-वस्तु सचित्त हो या अचित्त, बड़ी हो या छोटी, यदि थोड़ी-सी भी परिग्रहण की जाती है, दूसरे को परिग्रहण कराई जाती है अथवा परिग्रहण करके रखने वाले की अनुमोदना की जाती है, तो वह व्यक्ति दुःख से मुक्त नहीं हो पाता। अर्थात् वह पापकर्म का बन्ध करके उसके फलस्वरूप दुःख पाता है।
१. तृप्तो न पुत्रैः सगरः कुचिकर्णो न गोधनैः। ___ न धान्यैस्तिलकश्रेष्ठी न नन्दः कनकोत्करैः॥
__-‘पाप की सजा भारी, भा. १' से उद्धृत, पृ. ५१३ २. चित्तमंतमचित्तं वा परिगिझ किसामवि। अन्नं वा अणुजाणइ, एवं दुक्खाण मुच्चइ॥
-सूत्रकृतांग, अ. १, उ.१