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* विरति-संवर : क्यों, क्या और कैसे? ॐ ४४९ ®
असंयमी-अविरत जीव के पापों का स्रोत बहता रहता है आशय यह है कि असंयम पापकर्म का हेतु है। जब तक पापों को स्वेच्छा से संकल्पपूर्वक, विधिवत्, नियम-व्रत-प्रत्याख्यान अंगीकार करके छोड़े नहीं जाते, उनका प्रतिज्ञाबद्ध होकर त्याग नहीं किया जाता; तब तक उसकी आत्मा उन पापों के प्रति वासनामय रहती है, भले ही उस समय वह पापकर्म में प्रवृत्त न हुई हो, तो भी अविरत जीवों के दुष्परिणामों के कारण निरन्तर पापों का स्रोत बहता रहता है।
___साधक के लिये विरति-संवर की साधना अनिवार्य सारांश यह है कि असंज्ञी जीवों के लिए ही नहीं, संज्ञी जीवों, उनमें भी संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्यों के लिए अविरति कितनी भयंकर है, अविरति के पाप से जन्मजन्मों तक कितना भ्रमण करना और नानाविध दुःख पाना पड़ता है ? इसे ध्यान में रखकर प्रत्येक विचारशील मुमुक्षु कर्ममुक्ति के इच्छुक साधक को विरति-संवर की साधना-व्रत, प्रत्याख्यान, त्याग, तप, संयम, नियम के रूप में करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। तभी संवर और निर्जरा करके वह कर्मों से रिक्त हो सकेगा।
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पिछले पृष्ठ का शेष. (ग) तत्थ खलु भगवया छज्जीवणिकाय-रिऊ पण्णत्ता, तं.-पुढविकाइया जाव तसकाइया।
इच्चेतेहिं छहिं जीवणिकाएहिं आया अप्पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे णिच्चं पसढविओवात-चित्त-दंडे, तं जहा-पाणाइवाए जाव परिग्गहे, कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले।
-सूत्रकृतांग २/४/२१/३ (घ) मण-असंजमे वइ-असंजमे काइ-असंजमे।
-समवायांग १७/१