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अविरति से पतन, विरति से उत्थान-१
'पर' को देखने से प्रवृत्ति और 'स्व' को देखने से निवृत्ति
पिछले निबन्ध में हम बता चुके हैं कि अठारह ही प्रकार के पापकर्म पर-पदार्थों की ओर देखने से होते हैं और उनसे बचाव होता है-स्व (आत्मा) की
ओर दृष्टिपात करने में, अपने आप को देखने से, अपनी आत्मा का सम्यक् निरीक्षण-परीक्षण करने से। अब हम अठारह प्रकार के पापस्थानों में से प्रत्येक पापस्थान = पापकर्म के कारणभूत पर-पदार्थ (विभाव) के विषय में विश्लेषण करेंगे कि किस प्रकार दूसरों (सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों) को देखने से प्राणातिपात आदि हो जाते हैं और आत्मा को (अपने आप को) आत्मा से सम्प्रेक्षण करने पर किस प्रकार प्राणातिपात आदि से विरति हो जाती है? प्राणातिपात भी पर-पदार्थ को देखने से होता है
सर्वप्रथम प्राणातिपात को ही लें। यह सबसे पहला और सबसे प्रधान पापस्थान है। इसका पर्यायवाची प्रचलित शब्द हिंसा है। हिंसा या प्राणातिपात? अन्य सभी पापस्थानों का जनक है। असत्यादि का विचार मन में आते ही या उनका आचरण होते ही भाव-हिंसा हो गई। हिंसा का निश्चयदृष्टि से कषाय-पाहुड, पंचाध्यायी, परमात्म-प्रकाश आदि में अर्थ किया गया है-"रागादि की उत्पत्ति हो, प्रादुर्भाव होना ही हिंसा है।" 'प्रवचनसार त. प्र.' में कहा है-"अशुद्धोपयोग अन्तरंग छेद (शुद्ध आत्म-गुण का छेद) है और वही हिंसा है।" अथवा हिंसा का अध्यवसाय ही हिंसा है। जब भी जीव किसी जीव या किसी अचेतन पदार्थ को देखता है, उसके मन में उसके प्रति राग, द्वेष या अन्य किसी अशुभ भाव का
१. पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वास-निःश्वासमथाऽन्यदायुः।
प्राणा दथैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा॥ २. अभिमानभयजुगुप्सा-हास्य-रति-शोक-काम-कोपाद्याः हिंसायाः पर्यायाः सर्वेऽपि।
-पुरुषार्थ सि., उ. ६४