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ॐ ४२६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ®
विरुद्ध कृत्रिमता के कारण तन और मन दोनों बिगड़े हैं। बुद्धि बिगड़ी है, आदत बिगड़ी है, स्वार्थभावना और असहिष्णुता बढ़ी है; विषम और दुःख भी बढ़े हैं। सुविधावादी का दृष्टिकोण ___ दूसरी बात यह है कि सुविधावादी मनोवृत्ति वाला व्यक्ति सारी सुविधाएँ स्वयं भोगना चाहता है, दूसरों के प्रति उसकी सद्भावना या सहानुभूति अत्यल्प होती है। वह स्वयं चाहे संगृहीत सभी वस्तुओं का उपभोग न कर पाता हो, परन्तु दूसरोंजरूरतमंदों को भी उसका उपभोग नहीं करने देना चाहता। .. . . ___ जयपुर के निकट पहाड़ी पर बहुत बड़ा भवन था। उसमें एक राजा ने पुरानी चीजें संग्रह करके रखी हुई थीं। उसकी रखवाली के लिए दो पहरेदार तैनात किये हुए थे। उनसे पूछा गया-“यह मकान किसका है? यहाँ कौन रहता है ?" उन्होंने कहा-“यह मकान अमुक राजा साहब का है, वे जब कभी आते हैं तो यहाँ ठहरते हैं। दूसरे किसी को भी यहाँ ठरहने भी नहीं दिया जाता और न ही इन चीजों को छूने दिया जाता है। कभी-कभी तो सुविधावादी यह नहीं सोचता कि मुझे जिन . चीजों की आवश्यकता है, उतनी ही आवश्यकता दुनियाँ के सभी लोगों को है। पानी की जितनी आवश्यकता मुझे है, उतनी ही दूसरों को है। मैं क्यों आवश्यकता से अधिक पानी ढोलूँ या अन्न बर्बाद करूँ? परन्तु देखा गया है कि कई जगह लोग पानी का जरूरत से ज्यादा उपयोग करते हैं और नल खुला छोड़ देते हैं, जिससे व्यर्थ ही पानी गिर रहा है, उसे कोई परवाह नहीं। अतः सुविधावादी दृष्टिकोण में अपने स्वार्थ पर ही अधिक ध्यान दिया जाता है, परार्थ और परमार्थ की ओर ध्यान बिलकुल ही नहीं जाता। इससे कर्मों का अशुभ आस्रव और पापबंध ही अधिकाधिक उपार्जित होता है। __सुविधावादी मनोवृत्ति के कारण समाज में स्वार्थचेतना का विकास, मर्यादाओं
और सम्यक् आचार का अतिक्रमण, स्वच्छन्दाचार, उन्मुक्तता-निरंकुशता, परस्पर सुख-सुविधा पाने की होड़, ईर्ष्या, विषमता आदि अनिष्ट पनपते हैं। सुविधावाद
और निरंकुश भोगवाद की मनोवृत्ति के पोषण के लिए मनुष्य येन-केन-प्रकारेण, अन्याय-अनीति, शोषण, भ्रष्टाचार और अनैतिकता की ओर स्वयं को धकेलता रहता है। उसे किसी प्रकार की सूझबूझ नहीं पड़ती कि मैं अपनी आत्मा के प्रति द्रोही बनकर किस प्रकार अहिंसा-सत्यादि शुद्ध धर्म और अध्यात्म के विरुद्ध आचरण कर रहा हूँ? कर्मानवों और कर्मबन्ध को सम्यग्दृष्टिपूर्वक रोकने और आत्म-स्वरूप में स्थित होने-पर-पदार्थों के प्रति राग-द्वेष से मुक्त होने का प्रयत्न इस मनुष्य-भव में नहीं करूँगा, तो फिर न मालूम आगे किन-किन भवों में भटकना पड़ेगा ! भगवान महावीर ने निरंकुश सुविधावादी जीवन को इस लोक और