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ॐ विरति-संवर : क्यों, क्या और कैसे? * ४४१ ॐ
सर्वक्रिया-निरोध का फल सिद्धि (सर्वकर्ममुक्ति) है। यानी आत्मा का अपने पूर्ण शुद्ध स्वरूप में स्थित होना, रमण करना है।
प्रत्याख्यान : आस्रवों और इच्छाओं का निरोधक 'उत्तराध्ययनसूत्र' में भी बताया गया है कि प्रत्याख्यान से आम्रवद्वारों का निरोध (संवर) होता है तथा प्रत्याख्यान से (मनोज्ञ वस्तु के प्रति) इच्छा-निरोध होता है। इच्छा-निरोध से जीव सर्वद्रव्यों के प्रति तृष्णारहित होता है और तृष्णारहित होने से व्यक्ति शीतीभूत (शान्त शीतल) होकर विहरण करता है।
प्रत्याख्यान का अर्थ, लाभ, स्वरूप वस्तुतः शान्ति भोगोपभोग-सेवन में नहीं, त्याग करने में है। इस दृष्टि से सम्यग्दृष्टिपूर्वक समझ-बूझकर जब प्रत्याख्यान किया जाता है, तब शरीर और शरीर से सम्बन्धित पदार्थों के छूट जाने पर भी मन में शान्ति और प्रसन्नता होती है। अतः प्रत्याख्यान तन भरने का नहीं, मन भरने का उपाय है, शान्ति, संतुष्टि और तृप्ति का उपाय है। ‘आचारांग नियुक्ति' में भी कहा गया है-प्रत्याख्यान से आस्रवद्वार बन्द हो जाते हैं, तृष्णा का विच्छेद होता है। प्रत्याख्यान का सामान्य अर्थ है-त्याग करना। किसका त्याग करना? इसे स्पष्ट करने के लिए आवश्यकसूत्र की वृत्ति में परिष्कृत अर्थ किया गया है-परिहरणीय = स्वेच्छा से त्यागने योग्य वस्तु को त्यागने का संकल्प करना प्रत्याख्यान है। 'योगशास्त्र वृत्ति' में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है-"(त्याज्य) प्रवृत्ति का मर्यादापूर्वक त्याग करना।" 'प्रवचन सारोद्धार' में प्रत्याख्यान का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ किया है-अविरतिस्वरूप जो प्रवृत्तियाँ अहिंसादि के प्रतिकूल हैं, उनका मर्यादापूर्वक कुछ आगार (छूट) सहित त्याग करने का गुरु आदि के समक्ष संकल्पबद्ध होकर कथन करना प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान में तीन शब्द हैं-प्रति + आ + आख्यान, प्रति-यानी असंयम (अविरति) के प्रति (सेवन की) आ = मर्यादापूर्वक, आख्यान = प्रतिज्ञा या संकल्प करना।३
१. देखें-पृष्ठ ४३९ पर फुट नोट नं. १ (क) और (ख) २. पच्चक्खाणेणं आसवदाराई निरंभइ, पच्चक्खाणेणं इच्छानिरोहं जणयइ, इच्छानिरोहं गए य जीवे सव्वदव्वेसु विणीय-तण्हे सीईभूए विहरई।
___ -उत्तराध्ययन २९/१४ ३. (क) पच्चक्खाणंमि कए आसवदाराई हुंति पिहियाइं। ... आसव-बुच्छेएणं तण्हा-वुच्छेयणं होइ।।
-आवश्यक नियुक्ति १५९४ (ख) परिहरणीयं वस्तु प्रति आख्यानम् प्रत्याख्यानम्। -आव. मलयगिरि वृत्ति (ग) योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति (हेमचन्द्राचार्य) (घ) अविरति-स्वरूप-प्रवृत्ति (प्रभृति) प्रतिकूलतया आ मर्यादया, आकार-करण-स्वरूपया आख्यानं कथनं प्रत्याख्यानम्।
-प्रवचन सारोद्धार