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४१४ कर्मविज्ञान : भाग ६
जगत् का आधार है, (५) सम्यक्त्व धर्मरूपी वस्तु को धारण करने (रखने) का पात्र (भाजन) है, और (६) सम्यक्त्व धर्मरूपी गुणरत्नों को रखने की निधि (निधान) है।
(१२) सम्यक्त्व - साधना के लिए छह स्थानक - सम्यग्दर्शन की नींव आत्मा पर स्थित है। आत्मा के विषय में ही चित्त में अस्पष्टता, भ्रान्ति, अस्थिरता या शंका हो तो सम्यग्दर्शन सुदृढ़ और शुद्ध नहीं रह सकता । अतः सम्यक्त्व-संवर-साधक की दृष्टि आत्मा से सम्बन्धित छह स्थानकों (कारणों) के विषय में स्पष्ट और शुद्ध होनी आवश्यक है - (१) आत्मा है, (२) आत्मा नित्य है, (३) आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है, (४) आत्मा कृतकर्मों का फलभोक्ता है, (५) आत्मा कर्मों से मुक्ति प्राप्त कर सकती है, और (६) मुक्ति प्राप्त करने का उपाय भी है।
इस प्रकार इन ६७ बोलों पर बार-बार चिन्तन करने से, इनमें से हेय - उपादेय का विवेक करने से सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व-संवर सुदृढ़, सुनिश्चित, सुरक्षित एवं शुद्ध रह सकता है।
सम्यक्त्व-संवर में स्थिरता के लिए आवश्यक भावसम्पदा
सम्यक्त्व में जिसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है, उसे गीता की भाषा में 'स्थितप्रज्ञ' और आचारांग की भाषा में 'स्थितात्मा' कहा जाता है। सम्यक्त्व में मन, बुद्धि और हृदय को स्थिर रखने के लिए निम्नोक्त भावसम्पदाओं को अपनाना आवश्यक है, ताकि सम्यक्त्व-संवर और कर्मनिर्जरा का उपार्जन कर सके
(क) आत्मा के सिवाय सभी वस्तुएँ " पर हैं, मेरी नहीं हैं। परन्तु मैं आसक्तिवश शरीर तथा अन्य पदार्थों को अपनी मानकर इनके लिए हिंसादि तथा कषाय- विषयादि का सेवन करता हूँ, पर भावों और विभावों में रमण करता हूँ। अतः मेरा पर-पदार्थों के प्रति मोह - ममत्व हटे, रागादि विभावों से मैं दूर रहूँ । आत्मा के शुद्ध गुणों - स्वभाव में रमण करूँ, जाग्रत रहूँ। समता और निर्भयता बढ़ाऊँ।
(ख) पर-वस्तु को पाने की आकांक्षा ही आकुलता है, जो आत्म-भाव को विस्मृत करने वाली भव-व्याधि है । अतः मुझे सम्यक्त्व - संवर की स्थिरता के लिए पर-पदार्थ की आकांक्षा का त्याग करना चाहिए, ताकि निराकुलता, शान्ति और समाधि प्राप्त कर सकूँ।
(ग) अनादिकाल से मिथ्यात्ववश मैं इन्द्रिय-सुखों को ही सुख मानता आ रहा हूँ। अब मैंने सम्यक्त्व-संवर के लिए कदम उठाया है, तो मुझमें विषय- सुखों की लालसा समाप्त हो, आत्मिक सुख की भावना जागे । चाह नष्ट हो, निःस्पृहता, निष्कांक्षता बढ़े।