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ॐ सम्यक्त्व-संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार ॐ ४१५ *
(घ) तत्त्वों की यथार्थ समझ मुझमें प्रकट हो, विपरीत समझ नष्ट हो। पूर्वाग्रह, हठाग्रह या दुराग्रह या तत्त्वों के प्रति अरुचि-अश्रद्धा न रहे, सत्यग्राही दृष्टि, रुचि प्रकट हो।
(ङ) व्यवहारदृष्टि से सर्वज्ञ वीतराग प्रभु मेरे देव, ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप के सम्यक् आराधक मेरे गुरु तथा अहिंसादि व्रतरूप, रत्नत्रयरूप विषय-कषायनिवृत्तिरूप संवर-निर्जरात्मक मेरा धर्म रहे, किन्तु निश्चयदृष्टि से शुद्ध सिद्ध-स्वरूप
आत्मा ही देव है, आत्म-ज्ञान ही मेरा गुरु है, रागादिरहित आत्म-स्वरूपरमणतारूप धर्म ही मेरा निश्चय धर्म है। ऐसे निश्चय देव-गुरु-धर्म की मुझे प्राप्ति हो। ___ इस प्रकार की भाव-सम्पदा से सम्यक्त्व-संवर में स्थिरता और दृढ़ता आती
सम्यक्त्व-संवर के लिए सम्यक्त्व के
आठ अंगों का पालन करना अनिवार्य है सम्यक्त्व-संवर का साधक-जीवादि नौ तत्त्वों का ज्ञाता होकर जब उनमें से हेयोपादेय का विवेक करके हेय को छोड़ने और उपादेय को ग्रहण करने में तत्पर एवं कुशल हो जायेगा, तब वह अपने स्व-स्वरूप में अधिकाधिक स्थिर होकर सम्यग्दर्शन की वृद्धि और सुरक्षा कर सकेगा। अपने सम्यक्त्व गुण की वृद्धि के लिए वह निम्नोक्त आठ अंगों को मन-वचन-काया से अपनायेगा, जीवन में रमायेगा-(१) निःशंकता, (२) निष्कांक्षता, (३) निर्विचिकित्सा, (४) अमूढ़दृष्टित्व, (५) उपबृंहण या उपगूहन, (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य, और (८) प्रभावना।२
(१) निःशंकता-इसके दो अर्थ जैन परम्परा में प्रसिद्ध हैं-(१) सर्वज्ञ जिनोक्त तत्त्वों पर किसी प्रकार की शंका न रखना। ‘आचारांगसूत्र' में कहा है-“तमेव सच्च णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं।३–वीतराग सर्वज्ञ जिनेश्वर देवों द्वारा जो कथित-प्ररूपित है, वही सत्य और निःशंक है। अतीन्द्रिय पदार्थों पर तो आप्त (निर्दोष वीतराग़ सर्वज्ञ) पुरुषों के वचन (आगम) पर श्रद्धा रखकर चलना ही अनिवार्य है। (२) इहलोकभय, परलोकभय, आदान (अत्राण) भय, अकलाद्भय, आजीविकाभय या वेदनाभय, अपयशभय या अश्लोकभय एवं मरणभय, इन भयों
१. 'सम्यग्दर्शन : एक अनुशीलन' से भावांश ग्रहण, पृ. ४३३ २. · निस्संकिय-निक्कंखिय-निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठीय। उवबूह-थिरीकरणे वच्छल-पभावणे अट्ठ॥
-उत्तराध्ययन २८/३१, प्रज्ञापनासूत्र, पद १, मूलाचार २0१ ३. आचारांगसूत्र १/५/५/१६३