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ॐ सम्यक्त्व-संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार ७ ३९९ ®
बल, रूप, ऐश्वर्य, लाभ आदि तथा बुद्धि, शरीर, वाणी, मन एवं तप, श्रुत (ज्ञान) आदि को लेकर न ही अहंकारभाव लाता है, न ही हीनभाव लाता है। वह वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि को भी आत्मा का नहीं, शरीरादि का पौद्गलिक स्वभाव जानता है। इस प्रकार भेदविज्ञान का चिन्तन करके आत्मदृष्टि को सुदृढ़ करता है। यदि भेदविज्ञान के सिद्धान्त को ठुकराकर या नजरअंदाज करके वह शरीरादि पर मोह करता है या जाति आदि को लेकर अहंता-हीनता का भाव लाता है तो समझना चाहिए, वह निश्चय-सम्यक्त्व-संवर की साधना से विचलित है, डगमगा गया है, आत्मदृष्टि में स्थिर नहीं है। वह परीषहों और उपसर्गों अथवा विपत्ति, संकट और कष्ट के क्षणों में आत्म-ध्यान छोड़कर आर्त्त-रौद्रध्यान में लिप्त हो जायेगा।
(५) इसी प्रकार निश्चय-सम्यक्त्व-संवर के साधक को स्व-पर-तत्त्व का विवेक होने से हेय और उपादेय का निश्चय शीघ्र हो. जाता है। फलतः वह उपादेय को भी ज्ञानपूर्वक ग्रहण करता है और हेय को भी ज्ञानपूर्वक छोड़ता है। निश्चयसम्यग्दृष्टि-साधक का लक्षण भी. पूज्यपाद आचार्य ने इसी दृष्टि से किया है"जिसका अपने स्व-तत्त्व में उपादेय का और पर-तत्त्वों में हेय का निश्चय (पक्का विवेक) हो जाता है तथा जो संशय, विभ्रम, विमोह, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित है, वही (निश्चय) सम्यग्दृष्टि कहलाता है।"१
इस लक्षण के अनुसार निश्चय-सम्यक्त्व-संवर का साधक के लिए मुख्यत्वेन उपादेय तत्त्व वही होता है, जिसके ग्रहण करने से आत्मा का कल्याण, विकास और कर्मबन्धन से छुटकारा हो। फलतः अहिंसा-सत्यादि महाव्रत या अणुव्रत, समता, क्षमा, दया आदि सम्यक्चारित्र गुण ही उपादेय हो सकते हैं, बशर्ते कि इनके साथ भी इहलौकिक-पारलौकिक सुखाकांक्षा, भोगाकांक्षा, लोभ, मोह, तुच्छ स्वार्थ, कषाय आदि का दूषण न हो। अन्यथा उपादेय होते हुए भी राग, आसक्ति, लोभ, पद-प्रतिष्ठालिप्सा, सुखाकांक्षा, अधिकारलिप्सा, स्वार्थ पूर्ति की लालसा आदि के वशीभूत होकर इन्हें ग्रहण करने से ये बन्धनमुक्ति के बदले बन्धनकारक ही सिद्ध होंगे। यदि निश्चय-संवर-साधक ऐसा करता है तो वह संवर को छोड़कर अशुभ
-स्थानांग. १/१/१
१. (क) 'सम्यग्दर्शन : एक अनुशीलन' से भावांश ग्रहण
(ख) एगे आया। (ग) सव्वभूयप्पभूयस्स समं भूयाई पस्सओ।
पिहिआसवस्स दंतस्स पावकम्मं न बंधइ॥ (घ) स्वतत्त्व-परतत्त्वेषु हेयोपादेय-निश्चयः।
संशयादि-विनिर्मुक्तः स सम्यग्दृष्टिरुच्यते॥
-दशवकालिक, अ. ४, गा. ९
-पूज्यपाद श्रावकाचार, श्लो. ९