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® सम्यक्त्व-संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार * ३९७ *
जैसे बाजार में जाने वाला व्यक्ति हजारों तरह की चित्ताकर्षक वस्तुएँ दुकानों पर सजी हुई देखता है, परन्तु देखने मात्र से वे वस्तुएँ उसकी नहीं हो जाती, तटस्थभाव से, उपेक्षाभाव से, देखने मात्र से दुकानदार उन वस्तुओं को उस व्यक्ति के गले नहीं मढ़ देता। वे वस्तुएँ तभी उसकी होंगी, जब वह उन वस्तुओं से आकर्षित होकर उनके दाम चुका देगा। इसी प्रकार दुनियाँ के बाजार में विचरण करते हुए भी यदि सम्यक्त्व-संवर-साधक ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रह रहा है। किसी भी सजीव-निर्जीव वस्तु को देखकर मन में किसी प्रकार का राग-द्वेष-मोह-कषाय का विकल्प नहीं लाता, उस पर आसक्त होकर लेने के लिए आतुर नहीं होता, इन्द्रियाँ व मन-वचन-काया का प्रयोग रागादिपूर्वक नहीं करता तो वे वस्तुएँ उसके मन में नहीं चिपकेंगी, वे उसे बाँधेगी नहीं, ममत्व-अहंत्ववश उस वस्तु को अपना बनाने का विचार या संकल्प नहीं जागता तो यह संसार उसके लिए बन्धनकर्ता नहीं होगा। अन्दर का संसार छोड़ दे तो बाहर का संसार उस व्यक्ति का कुछ भी नहीं कर सकेगा। यदि सम्यक्त्व-संवर-साधक अन्तःकरण से आन्तरिक संसार से दूर रहने का पुरुषार्थ नहीं करता है, तो वह सम्यक्त्व-संवर से उतने अंशों में स्खलित हो जाता है, फिर चाहे वह कितना ही तप, जप, धर्म-क्रियाएँ कर ले, व्यवहारचारित्र का पालन कर ले, वह राख पर लीपने जैसा होगा। ___ अतः सम्यक्त्व-संवर के साधक को इस बाह्य संसार से भागना नहीं है, न ही अपने शरीरादि को नष्ट करके कषायवश मृत्यु का वरण करना है, किन्तु संसार में रहते हुए उससे निर्लिप्त रहना है। वह यह समझे कि संसार मेरे अंदर है तो मुक्ति (कर्ममुक्ति) भी मेरे अन्दर है। रोग होता है, वहाँ उसका उपचार भी किया जाता हैं। इसीलिए जैनाचार्य ने कहा-“कषायों से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है।" संसार के बीजरूप राग-द्वेष को जितने-जितने अंशों में समाप्त करने की सम्यग्दृष्टि संवर-साधना की जायेगी, उतने-उतने अंशों में आन्तरिक संसार से मुक्ति होती जायेगी। बशर्ते कि वह परिवार, समाज, सम्प्रदाय, राष्ट्र आदि समस्त घेरों की आसक्ति, ममता, अहंता, मूढ़ता आदि से निर्लिप्त एवं दूर रहे। जैसे कि 'बृहदालोयणा' में सम्यग्दृष्टि गृहस्थ के लिए कहा है
“रे रे समदृष्टि जीवड़ा, करे कुटुम्ब-प्रतिपाल।
अन्तर से न्यारो रहे, ज्यों धाय खिलावे बाल॥' अतः निश्चय-सम्यक्त्व-संवर के साधक का मिथ्यात्व आदि विभाव छूट गया जो राग-द्वेष, कषाय, आसक्ति, घृणा आदि विकार तीव्र रूप में थे, वे जितने अंशों
१. येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनाऽस्य बंधनं नास्ति।
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनाऽस्य बंधनं भवति॥
-पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय २१२