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ॐ ४१० 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ &
में कहा है-“शंकादि से रहित शुद्ध सम्यक्त्व होने पर अविरत सम्यग्दृष्टि भी तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन कर लेता है। केवल शुद्ध सम्यक्त्व के कारण ही राजा श्रेणिक तीर्थंकर नामकर्म बाँधकर भविष्य में तीर्थंकर होगा।" 'मोक्षपाहुड' में कहा है-“जो सम्यग्दर्शन की विशुद्धि से शुद्ध है, वही (आत्मा) वास्तव में शुद्ध है, अर्थात् उसी आत्मा का ज्ञान, चारित्र और तप शुद्ध है। दर्शन-शुद्ध आत्मा ही निर्वाण को प्राप्त करता है। दर्शन-विशुद्धि से विहीन व्यक्ति उस अभीष्ट (मोक्ष) को नहीं पा सकता।" वे नररत्न धन्य हैं, कृतार्थ हैं, शूरवीर हैं, शास्त्रज्ञ और पण्डित हैं, जो .. मुक्ति प्राप्त कराने वाले निर्मल सम्यक्त्व को ग्रहण करके स्वप्न में भी मलिन नहीं करते।" अहिंसा-सत्यादि धर्मों का यथार्थ पालन और लाभ भी सम्यक्त्व-शुद्धि होने पर ही होता है। 'प्रश्नोत्तर श्रावकाचार' के अनुसार-“जो बुद्धिमान् मनुष्य अतिचारों (दोषों) से रहित शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण कर लेता है, उसे मुक्तिलक्ष्मी स्वयं वरण करने आती है, स्वर्ग-सुखों का तो कहना ही क्या?" शुद्ध सम्यग्दृष्टि से युक्त सम्यक्त्व-संवर-साधक अहिंसादि धर्मों का आचरण अविवेक, यशकीर्ति, किसी लौकिक-पारलौकिक लाभ, गर्व, भय, निदान (सुखभोगाकांक्षा-संकल्प), कामनानामना, स्वार्थ, संशय, रोष, अबहुमान, शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, उत्कृष्टता के प्रदर्शन, ईर्ष्या आदि अनेक दोषों की अपेक्षा से नहीं करता, अपितु निष्काम, निःस्वार्थ एवं विशुद्ध दृष्टि से ही करता है।
'धवला' में सम्यग्दर्शन की विशुद्धता की व्याख्या इस प्रकार की गई है-“दर्शन का अर्थ सम्यग्दर्शन है। उसकी विशुद्धता अर्थात् तीन मूढ़ताओं, आठ मलों से रहित सम्यग्दर्शन का नाम दर्शन विशुद्धता है।" दिगम्बर परम्परा के रयणंसार, प्रवचनसार आदि अनेक ग्रन्थों में सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के लिए निम्नोक्त पच्चीस दोषों का त्याग अनिवार्य बताया है-"(१) तीन मूढ़ताएँ, (२) जाति आदि आठ मद, (३) छह
१. (क) दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नता प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकृत्वस्य।
-तत्त्वार्थसूत्र, अ. ६, सू. २३ (ख) शुद्ध सम्मत्ते अविरदो वि अज्जेदि तित्थयरणाम।
जादो दु सेणिगो आगमे सिं अरुहो अविरदो वि॥ -भगवती आराधना, गा. ७४० (ग) सणसुद्धो सुद्धो, दंसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं।
दसणविहीणपुरिसो, न लहइ इच्छियं लाह॥३९॥ ते धण्णा सुकयत्था, ते सूरा ते वि पण्डिया मणुआ।
सम्मत्तं सिद्धिकरं सुविणे वि ण मइलियं जेहिं॥८९॥ -मोक्षपाहुड, गा. ३९, ८९ (घ) अतिचारविनिर्मुक्तं यो धत्ते दर्शनं सुधीः।
तस्य मुक्तिः समायाति, नाक-सौख्यस्य का कथा? -प्रश्नोत्तर श्रावकाचार परि. ११/९४ (ङ) सम्यक्त्वशुद्धाविव धर्मलाभः। -सम्यग्दर्शन : एक अनुशीलन से, पृ. ४५६