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चारित्र : संवर, निर्जरा और मोक्ष का साधन ३७३
के कथन से निश्चय व्यवहार दोनों चारित्रों का मोक्षमार्ग में साध्य - साधकभाव मुख्यतया ज्ञान होता है, अविनाभाव भी । 'द्रव्यसंग्रह टीका' में इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है - " सरागचारित्र व्रत समिति आदि शुभोपयोगरूप होता है (उसमें युगपत् दो अंग प्राप्त हैं - एक बाह्य और एक आभ्यन्तर ), बाह्य अंग में पाँचों इन्द्रियों के विषय आदि का त्याग है, अतः वह उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से चारित्र है, जबकि आभ्यन्तर अंग में रागादि का त्याग है, वह अशुद्ध निश्चयनय से चारित्र है। अतः निश्चयचारित्र को साधने वाला व्यवहारचारित्र उसका साधन है। अतः उस व्यवहारचारित्र से साध्य परमोपेक्षा - लक्षण शुद्धोपयोग से अविनाभूत होने से ( व्यवहारचारित्र को भी ) उत्कृष्ट सम्यक्चारित्र जानना चाहिए ।" तात्पर्य यह है कि व्यवहारचारित्र के अभ्यास द्वारा क्रमशः बाह्य और आभ्यन्तर दोनों क्रियाओं का निरोध होते-होते अन्त पूर्ण निर्विकल्पदशा प्राप्त हो जाती है । यही इनका साध्य-साधनभाव है । '
एक ही चारित्र में युगपत् दो अंश
में
'मोक्खपाहुड की जयचंद छाबड़ा टीका' में इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है"चारित्र के निश्चय और व्यवहार के भेद से दो भेदरूप हैं (अर्थात् एक ही चारित्र युगपत् दो अंश हैं), जहाँ महाव्रत, समितिगुप्ति आदि के भेद करके कहा गया है, वहाँ वह व्यवहारचारित्र है । उसमें प्रवृत्तिरूप क्रिया है, जो शुभ बन्धकारी है और उन क्रियाओं में जितना अंश निवृत्ति का है, उसका फल (कर्म) बन्ध नहीं है। • उसका फल कर्म की एकदेश (आंशिक) निर्जरा है और जो सर्वकर्म से रहित अपने (शुद्ध) आत्म-स्वरूप में लीन होना निश्चयचारित्र है, उसका फल कर्म का सर्वथा नाश है।” तात्पर्य यह है कि ( सम्यग्दृष्टि की निश्चयमुखी) बाह्य प्रवृत्ति में अवश्य ही निवृत्ति का अंश विद्यमान रहता है। इस तथ्य से स्पष्ट है कि शुभोपयोग में अवश्य ही शुद्धोपयोग का अंश मिश्रित रहता है । इसलिए सरागचारित्री भी
१. (क) व्यवहारचारित्रं बहिरंगसाधकत्वेन वीतराग चारित्र-भावनोत्पन्न- परमामृत-तृप्तिरूपस्य निश्चयसुखस्य बीजं । तदपि निश्चयसुखं पुनरक्षयानन्तसुखस्य बीजमिति । अत्र यद्यपि साध्य-साधक-भाव-ज्ञापनार्थं निश्चय-व्यवहार-मोक्षमार्गस्यैव मुख्यत्वमिति भावार्थः । - पंचास्तिकाय ता. वृ. १०७/१७१/१२ (ख) (व्रतसमिति आदि) शुभोपयोगलक्षणं सरागचारित्राभिधानं भवति । योऽसौ बहिर्विषये पंचेन्द्रियविषय-परित्यागः स उपचरितासद्भूतव्यवहारेण यच्चाभ्यन्तर- रागादि - परिहारः स पुनरशुद्धनिश्चयनयेनेति नयविभागः । एवं निश्चयचारित्र - साधकं व्यवहारचारित्रं व्याख्यातमिति। तेनैव व्यवहारचारित्रेण साध्यं परमोपेक्षा-लक्षण-शुद्धोपयोगाविनाभूतं परमं सम्यक्चारित्रं ज्ञातव्यम् । - द्रव्यसंग्रह टीका ४५-४६/१९६/१०