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* ३७४ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ ®
शुद्धोपयोगलक्षी होने से उसके जितना-जितना रागांश है, उतना-उतना बन्ध है और जितना वीतरागांश है, उतना संवर-निर्जरा है।' असंख्यातगुणी निर्जरा का विधान
'तत्त्वार्थसूत्र' में बताया गया है कि सम्यग्दृष्टि (चतुर्थ गुणस्थानवर्ती) से पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक में असंख्यातगुणी निर्जरा होती है, उससे क्रमशः सर्वविरत मुनि अनन्तानुबन्धी कषाय के विसंयोजक, दर्शनमोह का क्षय करने वाले, उपशमश्रेणी-आरोहक, उपशान्तमोह, क्षपकश्रेणी-आरोहक; क्षीणमोह और तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिन (वीतराग) के क्रमशः परिणामों की विशुद्धता से प्रतिसमय असंख्यातगुणी असंख्यातगुणी निर्जरा होती है।
इसमें सर्वप्रथम सम्यग्दृष्टि की निर्जरा असंख्यातगुणी बताई है, क्योंकि प्रथम उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति से पूर्व मिथ्यादृष्टि तीन करण करता है, उनमें अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में प्रवृत्तिमान विशुद्धता से विशुद्ध जो सम्यक्त्व-सम्मुख मिथ्यादृष्टि होता है, उसे आयुष्यकर्म के सिवाय सात कर्मों की जो निर्जरा होती है, उसकी अपेक्षा अविरत-सम्यग्दृष्टि गुणस्थान प्राप्त करते हुए जीव को असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। उसके पश्चात् ऊपर के गुणस्थानों में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा बताई गई है।२ .. असंख्यातगुणी निर्जरा क्यों और कैसे ?
प्रश्न होता है-चौथे, पाँचवें और छठे गुणस्थान वाले सभी सराग संयमी होते हैं और निर्जरा तो वीतरागचारित्री के बताई गई है। सरागचारित्री में मुख्यतया शुभोपयोग बताया गया है, यहाँ शास्त्रकार चतुर्थ गुणस्थान से उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा अधिक बताते हैं, यह कैसे? इन गुणस्थानों में तो पुण्यबन्ध होना चाहिए? इसका समाधान यह है, सम्यग्दृष्टि आदि तीन गुणस्थानों में या आगे के गुणस्थानों में भी एकान्तरूप से राग नहीं होता, होता है तो भी (उपशान्त और क्षीण) प्रशस्त राग होता है, उनकी दृष्टि आत्म-स्वरूपलक्षी होती है, वे जितनी भी संयम की प्रवृत्तियाँ करते हैं, वे सब आत्माश्रय से होती हैं। इस कारण शुभोपयोग
१. (क) देखें-मोक्खपाहुड पर पं. जयचंद छाबड़ा की टीका ४२
(ख) देखें-द्रव्यसंग्रह टीका ५७/२३०/४ में निवृत्ति में प्रवृत्ति के अंश का चिन्तन
(ग) येवांशेन नु रागस्तेवांशेनास्य बन्धनं भवति। -पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय २१२-२१६ २. (क) सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरतानन्त-वियोजक-दर्शनमोह-क्षपकोपशमकोपशान्तमोह-क्षपक
क्षीणमोह-जिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुण-निर्जराः। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ९, सू. ४७ (ख) 'मोक्षशास्त्र' (गु. टीका) (रामजीभाई दोशी), अ. ९, सू. ४७ की व्याख्या से भाव ग्रहण