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ॐ ३८० * कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
वाले थे, वे पूर्वोक्त रीति से तप करते हैं। वाचनाचार्य वही होता है। इसके पश्चात् तीसरी छमाही में वाचनाचार्य तप करते हैं, एक को छोड़कर शेष साधु उनकी सेवा करते हैं, उनमें एक साधु वाचनाचार्य हो जाता है। तप का पारणा सभी साधुः आयम्बिल से करते हैं। इस दृष्टि परिहार का यहाँ तात्पर्यार्थ हुआ तपस्या (बाह्याभ्यन्तर) उसी से विशेष रूप से आत्म-शुद्धि की जाती है। जब साधक तप . करता है, प्राणिवध के आरम्भ-समारम्भ के दोष से सर्वथा निवृत्त हो ही जाता है। दिगम्बर परम्परा में परिहारविशुद्धिचारित्र का स्वरूप और विधिः .
दिगम्बर. परम्परा में परिहार का अर्थ प्राणिवध निवृत्ति किया गया है, उससे आत्म-शुद्धि जिस चारित्र में हो, उसे परिहारविशुद्धि कहा है। इस परम्परा में परिहारविशुद्धिचारित्र की विधि विलक्षण है-परिहारविशुद्धिचारित्र ऐसे संयत के : होता है, जो ३० वर्ष तक गृहस्थावस्था में सुखपूर्वक रहकर संयमी साधु बने और तीर्थंकर प्रभु के पादमूल की परिचर्या करता हुआ ८ वर्ष तक प्रत्याख्यान पूर्व का । अध्ययन करता है तथा जीवों की उत्पत्ति, योनि, जन्मादि के प्रकार एवं उनकी रक्षा में विशेषज्ञ हो जाता है। वह अप्रमत्त, महाबलशाली, दुष्कर चर्या करने वाला एवं कर्मों की महानिर्जरा करके आत्म-विशुद्धि करने वाला होता है।
सूक्ष्मसम्परायचारित्र-सामायिक या छेदोपस्थापनीयचारित्र की साधना करतेकरते जब क्रोधादि तीन कषाय उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं। एकमात्र लोभकषाय सूक्ष्मरूप (संज्वलनरूप) में रह जाता है, उस स्थिति को सूक्ष्मसम्परायचारित्र कहते हैं। यह चारित्र दशमगण स्थानवर्ती साध-साध्वियों को होता है। दिगम्बर परम्परा भी इसी प्रकार मानती है-जिस चारित्र में कषाय अति सूक्ष्म हो जाता है। यथाख्यातचारित्र : श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से
यथाख्यातचारित्र-जब चारों कषाय (नोकषाय भी) सर्वथा उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, उस समय की चारित्रिक स्थिति को यथाख्यातचारित्र कहते हैं। यह चारित्र गुणस्थान की अपेक्षा से दो भागों में विभक्त है-(१) उपशमात्मक यथाख्यातचारित्र, और (२) क्षयात्मक यथाख्यातचारित्र। प्रथम चारित्र ग्यारहवें
१. (क) उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २८, गा. ३२-३३ के विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ. ४८२ (ख) देखें-सर्वार्थसिद्धि विवेचन, अ. ९ सू. १८ (सं. पं. फूलचन्द जी सिद्धान्तशास्त्री),
पृ. ३३४ २. (क) उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २८, गा. ३२-३३ का विवेचन, पृ. ४८२ . (ख) अतिसूक्ष्मकषायत्वात् सूक्ष्म-सम्पराय-चारित्रम्।
-सर्वार्थसिद्धि (सं. पं. फूलचन्द जी), अ. ९, सू. १८, पृ. ३३४