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ॐ ३८६ * कर्मविज्ञान : भाग ६ ®
मूल्य नहीं होता। सम्यग्दर्शन सभी धर्मकार्यों का सार है। अणुव्रत-ग्रहण करने से पूर्व भी सम्यक्त्वरूपी मूल को स्वीकार करना परम आवश्यक होता है।' बोधि, श्रद्धा, सम्यक्त्व या सम्यग्दृष्टि परम दुर्लभ है
सम्यग्दृष्टि या सम्यक्त्व के लाभ को अथवा सम्यक् बोधि-लाभ को और सम्यक् श्रद्धा की प्राप्ति को शास्त्रों में परम दुर्लभ बताया गया है। सम्यक्त्व को अनुपम आध्यात्मिक रत्न बताया है। सम्यक्त्व-प्राप्ति को तीन लोकों के राज्य की प्राप्ति से भी बढ़कर बताया गया है। यही आध्यात्मिक जीवन का मेरुदण्ड है। दूसरे शब्दों में धर्म का मूल भी सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शनरहित जीव देव, गुरु और धर्म को यथार्थरूप में नहीं जान-पहचान पाता। इसीलिए सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व को मोक्षमार्ग का प्रथम साधन कहा है। यही अध्यात्म-साधना-मन्दिर का प्रवेशद्वार है। आध्यात्मिक गुणों की विशुद्धि का आधार भी यही है। भगवान महावीर ने तो स्पष्ट कहा है-“सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) नहीं होता तथा सम्यग्ज्ञान के बिना चारित्र (सम्यक्चारित्र) गुण नहीं होता, चारित्रगुण से रहित को मोक्ष (सर्वकर्मक्षय) नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण (अनन्त परम शान्ति) नहीं होता।" 'लाटी संहिता' में तो और भी स्पष्ट कहा है-“सम्यग्दर्शन के बिना ही तो इस जीव का ज्ञान अज्ञानी पुरुष के समान अज्ञान या मिथ्याज्ञान, चारित्र-कुचारित्र
और तप-बालतप कहलाता है।" इसीलिए 'प्रश्नोत्तर श्रावकाचार' में कहा गया है"ज्ञान और चारित्र का बीज सम्यग्दर्शन है। वही मुक्ति के सुखों का प्रदाता है, बहुमूल्य है, अनुपम है। इसलिए हे भव्य ! तू मोक्ष सुख के लिए इसे ग्रहण कर !" आचार्य समन्तभद्र के शब्दों में-“जैसे बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलोदय नहीं होते; वैसे ही ज्ञान और चारित्ररूपी दोनों वृक्षों की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और मोक्षफल-प्राप्ति (फलोदय) भी सम्यक्त्वरूपी बीज के अभाव में नहीं हो सकती। सम्यग्दर्शन ही ज्ञान और चारित्र को सम्यक् बनाने का कारण है। सम्यग्दर्शन ही ज्ञान और चारित्र तथा तप को उज्ज्वल करता है। ज्ञान, चारित्र और तप की सम्यक् आराधना सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन की आराधना से ही हो सकती है। इसलिए इन तीनों में सम्यग्दर्शन की ही प्रधानता है। सम्यग्दर्शन का १. द्वारं मूलं प्रतिष्ठानमाधारो भाजनं विधिः। द्विषट्कस्याऽस्य धर्मस्य सम्यक्त्वं परिकीर्तितम्॥
-तत्त्वार्थसूत्र भाष्य २. (क) सण मूलो धम्मो।
-षट्खण्डपाहुड दर्शनप्राभृत (ख) सद्धा परम दुल्लहा।
- उत्तराध्ययन ३/९ (ग) बोही होइ सुदुल्लहा ते सिं।
-वही, अ. ३६, गा. २५५/२५७