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ॐ परीवह-विजक: अपोषित, स्वरूप और उपाय 8 ३५७ 8
वैर-भाव, द्वेष, रोष आदि भाव न रखकर केवल अपने दोषों के प्रायश्चित्त रूप में कष्ट-सहन करता हो, तप करता हो, वहाँ इहलौकिक या पारलौकिक कामना-नामना न हो तो निर्जरा भी सम्भव है, संवर भी हो सकता है। अज्ञानपूर्वक तपश्चरण, कष्ट-सहन से पुण्यबन्ध हो सकता है, संवर-निर्जरा नहीं। फिर भी कषाय, रोष, आवेश, आसक्ति आदि से प्रेरित न होकर जो ज्ञानपूर्वक या समभावपूर्वक कष्ट-सहिष्णुता का अभ्यास करता है, वहाँ संवर, निर्जरा और पुण्य तीनों घटित हो सकते हैं।
धार्मिक कौन, अधार्मिक कौन ? धार्मिक और अधार्मिक का अर्थ साम्प्रदायिक या विधर्मी नहीं है, अपितु जो सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक अहिंसादि धर्मों का आचरण करता हो, वह धार्मिक है और जो शुद्ध धर्म का आचरण न करके औरंगजेब की तरह केवल साम्प्रदायिक क्रियाएँ करता है और कट्टरता रखता है, दूसरों को विधर्मी मानकर उनका अपमान करता है, दूसरे धर्म-सम्प्रदायों से रोष, द्वेष, वैर, ईर्ष्या रखता है, उन्हें बदनाम करता है तथा अपने सम्प्रदाय को, अपने क्रियाकाण्डों को उत्कृष्ट बताकर दूसरों की निन्दा, बदनामी करने तथा सम्प्रदायान्तर धर्मान्तर करने-कराने को तत्पर रहता हो, वह भले ही धार्मिकता का जामा पहना हुआ हो, सरासर अधार्मिक है। वह भले ही धार्मिक क्रियाकाण्ड, तपस्या आदि करके कष्ट उठाता हो, कषायों का, राग-द्वेषों का एवं ईर्ष्या, निन्दारूप पापस्थान का मित्र है। उसका यह अकृत्य संवर-निर्जरा का तो क्या, पुण्य का भी होना कठिन है।
. सच्चे धार्मिक की पहली कसौटी-सहिष्णुता सच्चे धार्मिक की सबसे पहली कसौटी है-सहिष्णुता। वह परिस्थिति का दास नहीं बनता, न ही वह अपने पर आए हुए कष्ट के लिए निमित्तों को या अन्य सम्प्रदायी लोगों को कोसता है। सच्चा धार्मिक व्यक्ति कष्ट आने पर कभी यह नहीं कहेगा कि धर्मात्मा पर कष्ट आए तो धर्माचरण करने से लाभ क्या? सच्चा धार्मिक यही कहेगा-धर्माचरण करने वाले पर पूर्वकृत कर्मवश कष्ट आते हैं, पर वह कष्ट आने पर रोता-बिलखता नहीं, आनन्द से उस कष्ट को सह लेता है। धर्माचरण से मनुष्य में कष्ट सहने की क्षमता बढ़ती है। जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, विघ्न आदि संकट-दुःख धार्मिक पर भी आते हैं, अधार्मिक पर भी। परन्तु सच्चा धार्मिक रोग, शोक, दुःख, प्रियजनवियोग आदि के समय विलाप, रुदन, हाय-हाय नहीं करता, बल्कि दूसरों को किसी प्रकार का कष्ट न देकर स्वयं उस कष्ट को समभाव से सह लेता है।