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ॐ चारित्र : संवर, निर्जरा और मोक्ष का साधन ® ३६७ &
और क्षोभ से रहित आत्मा का शुद्ध परिणाम है।' चारित्र को निश्चयदृष्टि से शुद्धोपयोग कहा है।
‘पंचास्तिकाय' के अनुसार-"जो ज्ञानमय आत्मा आत्मा के प्रति अनन्यमय होकर आत्मा से आत्मा को जानता-देखता है तथा आत्मा में ही संचरण करता है, वह आत्मा ही चारित्र है, क्योंकि वह चारित्र ज्ञान और दर्शन निश्छिद्र हो जाते हैं। अर्थात् आत्मा व्यवधानरहित ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय हो जाता है। यही पर-भावों से रहित शुद्ध चैतन्य स्वभाव में तत्त्वाराधनायुक्त रमणरूप ‘चारित्र' है।" 'चारित्रपाहुड' में-“(आत्मा) जो जानता है उसे ज्ञान और जो देखता है उसे दर्शन कहा है। अतः (आत्मा में एकमात्र) ज्ञान और दर्शन दोनों का ही समायोग हो (अन्य किसी भी सजीव-निर्जीव पदार्थ के प्रति राग-द्वेषादि विकल्प न हो), वही चारित्र हो जाता है।"२
· निश्चयचारित्र और व्यवहारचारित्र का समन्वय 'तत्त्वार्थ राजवार्तिक' के अनुसार-यद्यपि चारित्रमोहनीय के उपशम, क्षय और क्षयोपशम से होने वाली आत्म-शुद्धि की दृष्टि से चारित्र सामान्यतया एक है। किन्तु बाह्य और आभ्यन्तर निवृत्ति अथवा व्यवहार और निश्चय की अपेक्षा से वह दो प्रकार का है। तात्पर्य यह है कि यद्यपि चारित्र एक ही प्रकार का है, किन्तु उसमें जीव के अन्तरंगभाव और बाह्य त्याग दोनों बातें युगपत् (एक साथ) उपलब्ध होने के कारण अथवा पूर्व भूमिका और उच्च भूमिकाओं में क्रमशः विकल्पता और निर्विकल्पता की प्रधानता रहने के कारण उसका निरूपण दो प्रकार से किया गया है-व्यवहारचारित्र और निश्चयचारित्र। १. (क) समदा तह मज्झत्थं सुद्धो भावो य वीयरायत्तं। तह चारित्तं धम्मो सहाव-आराहणा भणिया॥
-नयचक्र वृ.३५६ (ख) माध्यस्थ्यलक्षणं प्राहुश्चारित्रं।
-महापुराण २४/११९ (ग) चारित्तं खलु धम्मो, जो सो समो ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोह-विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥
-प्रवचनसार मू.७ २. (क) जे चरदि णाणी पेच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं।
सो चारित्तं णाणं दंसण मिदि णिच्छिदो होदि। -पंचास्तिकाय मू. १६२ (ख) जं जाणइ तं णाणं, पिच्छइ तं च दंसणं भणियं। • णाणस्स पिच्छयस्स समवण्णा होइ चारित्तं।।
-चारित्रपाहुड मू. ३ ३.. (क) यदवोचाम चारित्रम्, तच्चारित्र-मोहोपशम-क्षय-क्षयोपशमलक्षणा आत्मविशुद्धि-लब्धि
सामान्यापेक्षया एकम्। (ख) 'जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भा. २' (जिनेन्द्रवर्णी) में चारित्र शब्द की व्याख्या १0 से,
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