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ॐ परीवह-विजय : उपयोगिता, स्वरूप और उपाय 8 ३५३ &
(८) स्त्री, (९).चर्या, (१०) निषद्या, (११) शय्या, (१२) आक्रोश, (१३) वध, (१४) याचना, (१५) अलाभ, (१६) रोग, (१७) तृणस्पर्श, (१८) मल, (१९) सत्कार-पुरस्कार, (२0) प्रज्ञा, (२१) अज्ञान, और (२२) अदर्शन।
इन बाईस परीषहों में कुछ परीषह तो शारीरिक हैं, कुछ मानसिक हैं और कुछ परीषह हैं-भावनात्मक। इनका संक्षेप में लक्षण इस प्रकार है(१-२) क्षुधा-पिपासा-भूख और प्यास की चाहे जितनी वेदना हो, किन्तु अंगीकृतमर्यादा के विपरीत आहार-पानी न लेते हुए समभावपूर्वक इन कष्टों को सहना। (३-४) शीत-उष्ण-ठंड और गर्मी से चाहे जितना कष्ट हो, फिर भी उनके निवारणार्थ अकल्प्य वस्तु का सेवन न करके समभावपूर्वक उन्हें सहन करना। (५) दंश-मशक-डाँस और मच्छर आदि जन्तुओं के उपद्रव से क्षुब्ध न होकर समभावपूर्वक सहन करना। (६) अचेलत्व (अल्प-जीर्ण वस्त्रत्व या निर्वस्त्रत्व) साधक के पास चाहे फटे-पुराने वस्त्र हों अथवा नग्नत्व हो, समभावपूर्वक सहना। (७) अरति-अंगीकृत मार्ग में अनेक कठिनाइयों के कारण अरुचि का प्रसंग आने पर भी अरुचि न लाते हुए धैर्यपूर्वक संयममार्ग में रुचि लेना। (८) स्त्री-पुरुष या नारी साधक का अपनी साधना में विजातीय आकर्षण के प्रति न ललचाना। (९) चर्या-स्वीकृत धर्मजीवन को पुष्ट करने के लिए निःसंग होकर विहार आदि विभिन्न चर्या करना। (१०) निषधा-साधनानकल विविक्त स्थान में मर्यादित समय तक आसन लगाकर बैठे हुए साधक पर यदि कोई खतरा आ जाए तो उसे अकम्पितभाव से जीतना या आसन से च्युत न होना। (११) शय्या-कोमल या कठोर, ऊँची या नीची, जैसी भी जगह सहजभाव से मिले, वहाँ समभावपूर्वक शयन करना। (१२) आक्रोश-कोई पास आकर गाली दे, दुर्वचन कहे, कठोर वचन कहे, तो भी उसे सत्कार समझकर सहन करना। (१३) वध-किसी के द्वारा मारने-पीटने या धमकी दिये जाने पर भी उसे सेवा या सत्कार-सम्मान समझकर सहन करना। (१४) याचना-अपनी संयम यात्रा के निर्वाहार्थ-दैन्य या अहंकारभाव से रहित होकर याचकवृत्ति स्वीकार करना। (१५) अलाभ-याचना करने पर भी यदि अभीष्ट और कल्पनीय वस्तु न मिले तो प्राप्ति के बजाय अप्राप्ति को ही सच्चा तप मानकर संतोष रखना। (१६) रोग-किसी भी रोग के आने पर व्याकुल न होकर समभावपूर्वक उसे सहन करना। (१७) तृण-स्पर्श-संथारा व्रत में या अन्य समय में तृण आदि की तीक्ष्णता या कठोरता का अनुभव हो तो मृदुशय्या के सेवन जैसी प्रसन्नता रखना। (१८) मल-पसीना आदि के कारण शरीर पर मैल चढ़ जाने पर भी उद्विग्न न होना। (१९) सत्कार-पुरस्कार-सत्कार या पुरस्कार मिलने पर अहंकार या गर्व न करना, न मिलने पर खिन्न न होना। (२०) प्रज्ञा-चमत्कारिणी