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* २४४ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ® निर्जरानुप्रेक्षा से सर्वतोमुखी शुद्धि ____ संवरानुप्रेक्षा द्वारा बाहर से आने वाले आस्रवों (कर्मागमनों) का निरोध कर दिया जाता है, किन्तु जो कर्म आत्मा के साथ इस जन्म के तथा पूर्व-जन्मों के लगे हुए हैं, वे कैसे नष्ट किये जाएँ ? कैसे उन संचित कर्मों को उखाड़कर बाहर किया जाए? इसके लिये निर्जरानुप्रेक्षा बताई गई है। नये कर्म न बाँधे जाएँ, इतने मात्र से आत्मा की शुद्धि नहीं होती, पहले से. बँधे हुए जो शुभाशुभ कर्म संचित पड़े हैं, उनको नष्ट करने पर ही आत्मा की सर्वतोमुखी शुद्धि हो सकती है, इसी भावना से प्रेरित होकर कर्ममलों की विशुद्धि की-रागद्वेषादिजनित कर्ममलों के प्रक्षालन की विद्या निर्जरानुप्रेक्षा है। क्योंकि निर्जरा आत्म-शुद्धि की सर्वांगीण प्रक्रिया है।' अवचेतन मन में संचित रागादि संस्कारों का रेचन . निर्जरा द्वारा ही संभव
"संवर के द्वारा शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि पर रागादि के निमित्त से बाहर से आने वाले आम्रवों के द्वार तो बन्द कर लिये, परन्तु मन-मस्तिष्क में लाखों-करोड़ों शब्दादि के संस्कारों के जत्थे के जत्थे बंद पड़े हैं, ये भीतर में संचित शब्दादि निमित्त मिलते ही उभर आते हैं। ध्यान, मौन, जपं आदि के द्वारा उस ज्ञान मन को स्थिर करने-एकाग्र करने का प्रयल करने पर भी वह अधिकाधिक चंचल, व्यग्र एवं उत्तेजित हो उठता है, इसका क्या कारण है? और इस कारण के निवारण का क्या उपाय है ? असल में, जब बाह्य मन से आस्रवों का प्रवेश होता था, तब भीतर का मन सोया पड़ा था। किन्तु जब बाहर से द्वार बंद हो जाते हैं, तो भीतर वाले मन को जागने का मौका मिलता है। मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो, जब चेतन मन 'जागता है तो अवचेतन मन सोया रहता है और चेतन मन सो जाता है तो अवचेतन मन जागता है। बाह्य (चेतन) मन जागता है, तब भीतर के (अवचेतन) मन का भण्डार कर्मसंस्कारों से, विविध वृत्तियों से भरता रहता है। एक दिन निमित्त मिलते ही भयंकर विस्फोट होता है। अज्ञात मन में दबी पड़ी हुई वे संस्कारों की पर्ते उखड़कर बाहर आती हैं। जो व्यक्ति आज तक सज्जन और शरीफ दिखाई देता था, उसमें अचानक हिंसा, हत्या, बेईमानी, चोरी आदि बुराइयाँ एकदम उभर आती हैं। ये दुर्वृत्तियाँ इसलिए उभरती हैं कि उसके मूल संस्कार अवचेतन मन की गहराई में छिपे हुए थे। केवल प्रतिसंलीनता या ध्यान के अभ्यास करने से भी वे दबी हुई वासनाएँ रिक्त नहीं होतीं। वे शब्दादि की संचित एवं प्रसुप्त वासनाएँ निर्जरा के द्वारा ही रिक्त होती हैं। निर्जरा की प्रक्रिया से ही उन
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१. 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण, पृ. ७५