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* विविध दुःखों के साथ मैत्री आत्म-मैत्री है ३१७ 8
वश होकर उत्तरोत्तर दुःख में वृद्धि करता जाता है। उस समय उसे शास्त्र के इस . निर्देश को मानकर चलना चाहिए कि “ये शब्दरूप आदि कामभोग (जड़पदार्थ) और हैं, मैं (आत्मा) और हूँ।"१
सुख-दुःख स्वकृत मानने से लाभ : कैसे और किस उपाय से ? सुख-दुःख स्वकृत कैसे है? इसे ठीक से समझने के लिए एक उदाहरण ले लेंदेवदत्त को यज्ञदत्त ने गाली दी-“तुम अत्यन्त मूर्ख हो।" यह गाली वहाँ खड़े अनेकों व्यक्तियों ने सुनी। उन अनेकों व्यक्तियों को उस गाली से कोई दुःख नहीं होता। दुःख उसी को होगा, जो गाली सुनकर मन से, वचन से या काया से प्रतिक्रिया करेगा। जो यह मानेगा कि इसने इतने लोगों के बीच 'मूर्ख' कहकर मेरा अपमान किया है, उसे ही दुःख होगा। जो व्यक्ति ज्ञानबल से या अनुप्रेक्षा से यह मान लेता है कि इसके मूर्ख कहने से मैं मूर्ख नहीं हो गया। मेरा क्या बिगड़ा है, इसके द्वारा मूर्ख कहे जाने से। इस प्रकार देवदत्त यदि उस गाली को समभाव से सह लेता है अथवा मन में यह विचार जमा लेता है कि केवलज्ञानियों या ज्ञानी पुरुषों की अपेक्षा से तो मैं बहुत ही अल्पज्ञ हूँ, मूर्ख हूँ, मोहग्रस्त हूँ। मुझे अपनी मूर्खता के प्रति सावधान करके यज्ञदत्त ने मुझे अपनी मूर्खता-अल्पज्ञता या मोहग्रस्तता दूर करने के लिए प्रेरित किया है। इस प्रकार उक्त गाली को प्रेरणादायी रूप में लेने से गाली का दुःख बिलकुल नहीं होगा, वह सुखरूप में परिणत हो जाएगी। इस प्रकार. यदि व्यक्ति ज्ञानबल से किसी घटना, परिस्थिति, व्यक्ति या वस्तु को जान-देखकर उसके प्रति मध्यस्थ रहे अथवा अपने कर्मक्षय का कारण मानकर समभाव में स्थित रहे, समाधिपूर्वक सहन करे तो उसे वह घटना
आदि दुःखरूप नहीं प्रतीत होगी, समभावपूर्वक सहने से उसे सन्तोष का सुख मिलेगा, कर्मनिर्जरा भी होगी, शुभ योग-संवर भी हो सकता है। यदि व्यक्ति प्रिय-अप्रिय मानी जाने वाली किसी घटना, परिस्थिति, व्यक्ति या वस्तु के प्रति प्रतिक्रिया न करे, केवल ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहे तो वह घटना आदि सुख या दुःख नहीं दे सकती। व्यक्ति यदि किसी भी दुःख के साथ पूर्वोक्त प्रकार से अपने आप को, अपने मन को न जोड़े, वह उस दुःख को स्वकृत कर्मजनित समझकर दुःख के मूल कारण पर प्रहार करे, यानी कर्मक्षय या कर्मनिरोध जिस-जिस उपाय से हो, उस-उस उपाय को अपनाए तो दुःख शीघ्र ही दूर होकर आत्म-शान्ति प्राप्त कर लेता है।
१. अन्ने खलु कामभोगा, अन्नो अहमंसि। -सूत्रकृतांगसूत्र, श्रु. २, अ. १, सू. १३ २. 'दुःखमुक्ति : सुखप्राप्ति' से भावांश ग्रहण, पृ. १८, २१