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* ३४८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ 8
संक्षेप में, कायक्लेश का विधान आध्यात्मिक स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने के लिए है। देहाध्यास या काय-ममत्व इसमें बाधक बनता है। उसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। इसलिए जो स्थान आरोग्य-प्राप्ति के लिए शल्य-चिकित्सा का है, वही स्थान आध्यात्मिक आरोग्य की प्राप्ति के लिए कायक्लेश का है। देहाध्यास यां काय-ममत्व की जड़ों को उखाड़ने के लिए शरीर को कष्ट-सहन में इतना सक्षम
और लोहमय बना लें कि रोगादि कष्ट आने पर भी उसका प्रतिकार न करके स्वतः स्वास्थ्य-प्राप्ति हो जाए। ___ कायक्लेश तप के सन्दर्भ में जो आसनों का विधान है, वह भी आसनसिद्धि के लिए है। किसी भी तपःसाधक का आसन सिद्ध हो जाने पर सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि द्वन्द्व उसे नहीं सता सकेंगे। ये द्वन्द्व उसकी साधना में बाधक नहीं हो पाएँगे। आसनसिद्धि लगातार दीर्घकाल तक आसनों (योगासनों) के करने से होती है। आसनसिद्ध हो जाने पर उसे सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्वों का वेदन या बोध नहीं होगा। इनके आने पर भी वह अपनी साधना से विचलित नहीं होगा। उसका शरीर सब कुछ सहन करने में लचीला व सक्षम बन जाएगा। ‘योगदर्शन' में भी आसनसिद्धि को कष्टों को सहन करने का उपाय बतलाया है।२ शीत-उष्ण परीषह का तात्पर्य और उस पर विजय कैसे ? ___ संवर-निर्जरा-साधक के जीवन में सर्दी, गर्मी आदि द्वन्द्वों को सहन करने की शक्ति का विकास होना चाहिए। ‘आचारांगसूत्र' में परीषह के मुख्य दो भेद बताए हैं-शीत परीषह और उष्ण परीषह। ‘आचारांगसूत्र' में एक, सूक्त है-“सीउसिणच्चाइ से निग्गंथे।" निर्ग्रन्थ वह होता है, जो शीत और उष्ण को सहन कर लेता है। शीत परीषह का तात्पर्य वहाँ केवल मौसम की सर्दी सहने से ही नहीं है, अपितु भावों में भी सर्दी आ जाए उसे भी सहने से है। यही तात्पर्य उष्ण-परीषह का है। अनुकूल कष्ट सर्दी है और प्रतिकूल कष्ट है गर्मी। जो साधक अपने शरीर से सर्दी या गर्मी को सहन नहीं कर पाता, वह शरीर से कच्चा साधक रह जाता है, इसी प्रकार जो साधक अपने मन में अनुकूलता और प्रतिकूलता के कष्ट को नहीं सह पाता, वह संवर-निर्जरा-साधना के क्षेत्र में कच्चा रह जाता है। कच्चा साधक जब चाहे तब, जरा-सी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में दुःखी और संक्लिष्ट हो सकता है। इसके विपरीत जो साधक परिपक्व हो जाता है, वह कैसी भी दुःखों या कष्टों की आँधी या तूफान आए, कष्ट नहीं पाता, मन में संक्लिष्ट नहीं होता। संवर-निर्जरा की साधना की आँच में तपते-तपते, यानी अनुकूलता-प्रतिकूलता को झेलते-झेलते जो १. 'संस्कृति के दो प्रवाह' (युवाचार्य महाप्रज्ञ).से भावांश ग्रहण २. प्रयत्न-शैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम्। ततो द्वन्द्वानभिघातः। -योगदर्शन, पाद २, सू. ४७-४८