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* ३४४ कर्मविज्ञान : भाग ६
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परिस्थितियाँ उत्पन्न होते ही विक्षुब्ध हो उठने भाग खड़े होने, नदी-तालाब में डूबकर मर जाने, चट्टानों से सिर टकराने या काँटों पर गुस्सा करके उन्हें पैरों से रौंदने की मूर्खता से अपने ही आध्यात्मिक विकास में रुकावटें आती हैं, कर्ममुक्ति के लक्ष्य तक पहुँचने में मदद मिलने की अपेक्षा कर्मबन्ध को अधिकाधिक मजबूत और गाढ़ कर दिया जाता है।
असहिष्णुता और सहिष्णुता के परिणामों में अन्तर
असहिष्णुता एक प्रकार की क्षुद्रता, अधीरता, आतुरता या उथलापन ही है, जबकि सहिष्णुता समुद्र की-सी गम्भीरता का नाम है। मुक्त आत्माओं को ‘सागरवरगंभीरा' इसीलिए कहा गया है कि उन्होंने धीर-गंभीर एवं सहिष्णु बनकर अध्यात्म के शिखर पर आरूढ़ होने की और सर्वकर्मों से मुक्त होने की सफलता ( सिद्धि) अर्जित की है। सहिष्णुता से विघ्न-बाधाओं एवं प्रतिकूलताओं की बड़ी-बड़ी चट्टानें बिना व्यापक उथल-पुथल किये अनुकूल बन जाती हैं, कष्टों का भयंकर तूफान भी क्षणभर में शान्त हो जाता है।
जान-बूझकर कष्ट सहने से क्या लाभ क्या हानि ?
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कई अध्यात्मवादी लोग यह भी शंका उठाते हैं कि सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रयरूप धर्म की साधना-आराधना ज्ञान, आनन्द और शक्ति की प्राप्ति के लिए है । हमारी आत्मा में अनन्त ज्ञान - दर्शन - आनन्द और अनन्त शक्ति विद्यमान है। फिर हम कष्टों, कठिनाइयों और दुःखों को क्यों सहन करें ? क्यों जान-बूझकर इन कष्टों और दुःखों का सामना करें ? कष्ट और दुःख को सहन करने से ज्ञान, आनन्द और शक्ति की प्राप्ति कैसे हो जायेगी ?
दूसरी बात - मजदूर, श्रमजीवी, पहलवान तथा अन्य कतिपय गृहस्थ तो बहुत कष्ट उठाते हैं, कई तथाकथित तापस, साधु बाबा, संन्यासी आदि भी कष्टकारक तप करते हैं, पंचाग्नि तपते हैं, ठंडे पानी में घंटों खड़े रहते हैं, शरीर को कई प्रकार का कष्ट देते हैं, कई योगाचार्य भी हठयोग की कष्टकारक साधना करते हैं, कई योगसाधक भी विविध व्यायाम, आसन, प्राणायाम आदि द्वारा शरीर को कष्ट में डालते हैं।
इसी सन्दर्भ में कुछ लोग यह कहते हुए नहीं सकुचाते कि आगमों में श्रमणों के लिए काया को कष्ट देने, देह को दुःख में डालने और अपने शरीर को जीर्ण-शीर्ण बनाने का विधान' श्रमण - जीवन को अत्यन्त कठोर सिद्ध करता है । और उसी का
१. (क) कसेहि अप्पाणं, ज़रेहि अप्पाणं । (ख) आयावयाहि चय सोगमल्लं ।
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- आचारांग, श्रु. १, अ. ४, उ. २१
- दशवैकालिक, अ. २/५