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ॐ विविध दुःखों के साथ मैत्री आत्म-मैत्री है ३२७ ॐ बुढ़ापा, मृत्यु, शरीर की दुर्बलता, मोटापा तथा अनेक रोग आदि हैं। मानसिक दुःखों में तनाव, हीनभाव, उद्विग्नता, अशान्ति, बेचैनी, चिन्ता, शोक, भय, वियोग आदि नाना दुःख हैं तथा राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, कपट, अहंकार, मद, मत्सर आदि दुःखों की परिगणना आध्यात्मिक दुःखों में की जाती है तथा अतिस्वार्थ, ईर्ष्या, कलह, संघर्ष, छीनाझपटी, अभाव, चोरी, डाका आदि दुःखों की गणना पारिवारिक व सामाजिक दुःखों में की जाती है। इसी प्रकार आर्थिक तथा राजनैतिक क्षेत्र में भी घाटा, अर्थ की कमी, अकाल, बाढ़, भूकम्प, लूट, डाका, धोखाधड़ी आदि दुःखों का समावेश है।' - समस्त दुःखों के मूल कारण और उनके निवारण के दो मुख्य उपाय
इन और ऐसे ही समस्त दुःखों का मूल कारण तो पूर्वकृत अशुभ कर्मों का उदय है। इन समस्त दुःखों को दूर करने के दो मुख्य उपाय हैं-(१) कर्मबन्ध के मूल कारण-वस्तु आदि के प्रति राग, द्वेष, कषाय आदि का निरोध किया जाए। (२) कर्मोदयवश दुःख आ पड़े तो समभावपूर्वक सहन करके उन कर्मों (कर्मजनित दुःखों) का क्षय किया जाए। पहले कहा जा चुका है कि ये सारे दुःख राग-द्वेषयुक्त मन से कल्पित हैं। इस मनःकल्पित दुःख और सुख की परिभाषा है-प्रतिकूलता का वेदन (अनुभव) करना दुःख है और अनुकूलता का वेदन करना सुख है।
सुख और दुःख राग और द्वेष के कारण : क्यों और कैसे ? ___ गहराई से देखा जाए तो सुख और दुःख का यह सारा द्वन्द्व राग और द्वेष के कारण होता है, जो किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति या अवस्था को लेकर होते हैं। मनोऽनुकूल वस्तु या व्यक्ति के पाने पर सुखी होना उस कल्पित सुख में आसक्त होना सुख का भोग है और मनःप्रतिकूल वस्तु या व्यक्ति के मिलने पर दुःखी होना, उस दुःख के प्रति अरुचि या घृणा होना दुःख का भोग है। सुख के भोग से राग और दुःख के भोग से द्वेष होता है। पूर्व कर्मोदयवश आ पड़े हुए दुःख या दुःख के कारणों से उपस्थित या मनःकल्पित दुःख को नहीं चाहने अथवा उसे शीघ्र मिटाने का भाव द्वेष है और पूर्वकर्मोदयवश प्राप्त सुख को चाहने, स्थायी रखने, सुख के मनःकल्पित कारणों या साधनों को बनाये रखने का भाव राग है। कामना, वासना, ममता, तृष्णा, इच्छा, लिप्सा, लालसा आदि सब राग के ही पर्याय हैं, तथैव घृणा, अरुचि, रोष, वैर-विरोध, ईर्ष्या, असन्तोष, शीघ्र दूर करने की इच्छा, उच्चाटन, मारण, नाश करना, हानि पहुँचाने की भावना आदि सब द्वेष.के पर्याय हैं। वस्तुतः राग और द्वेष ही दुःख के मूल कारण हैं।
.. १. 'दुःखमुक्ति : सुखप्राप्ति' से भाव ग्रहण, पृ. ४