________________
* विविध दुःखों के साथ मैत्री आत्म-मैत्री है * ३३५ *
के योग्य रहता है, न क्रीड़ा के, न रति के और न शृंगार के योग्य ही।" अतः बुढ़ापे में इन बातों के लिए अयोग्य हो जाने से व्यक्ति को स्वतः संयम कर लेना चाहिए, इन चीजों पर जिससे अनायास ही संवर का लाभ मिले।'
बुढ़ापे के साथ मैत्री करने के पाँच मुख्य सूत्र आत्मार्थी व्यक्ति बुढ़ापे के साथ मैत्री करके बुढ़ापे के दुःख को सुख में बदल सकता है। बुढ़ापे के साथ मैत्री स्थापित करने के मुख्यतया पाँच सूत्र हैं(१) अनाग्रहीवृत्ति, (२) हर परिस्थिति के साथ एडजस्ट होना, (३) चिन्ता और भावी भय से मुक्ति, (४) इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण, और (५) आहार-संयम।
.. अनाग्रहीवृत्ति : बुढ़ापे के साथ सुखद मैत्री का उपाय बुढ़ापे में व्यक्ति को अपना आग्रह दूसरों पर लादना नहीं चाहिए। अपने परिवार और समाज के लोगों को भी बिना माँगे कोई भी सलाह नहीं देनी चाहिए। युवक पुत्र और पुत्रवधू को बार-बार टोकते रहने से अपनी बात पर चलने के लिए आग्रह करने से वृद्धवृद्धा के प्रति उनकी श्रद्धा-भावना में शिथिलता आ जाती है। वे उक्त वृद्ध/वृद्धा से प्रायः उपेक्षा या किनाराकसी करने लगते हैं। बिना माँगे दी गई सलाह या अपनी बात मनवाने का आग्रह जब सफल नहीं होता है, तो वृद्ध को दुःख होता है, वह द्वेष-रोषवश कर्मबन्ध कर लेता है। अनाग्रहीवृत्ति अपनाने से उसे अपनी बात न मानने का कोई दुःख नहीं होता। युवक संतति का भी उस पर पूज्य भाव बना रहता है। बुढ़ापे के साथ मैत्री करने का यह सफल उपाय है।
प्रत्येक परिस्थिति में स्वयं को एडजस्ट करना मैत्री का मंत्र ___ प्रतिकूल परिस्थिति आने. पर सोचना-इसमें किसी और का दोष नहीं, मेरे
अपने ही पूर्वकृत कर्मों का दोष है, इसे समभाव से सहने पर कर्मों की निर्जरा भी होगी, मन में भी शान्ति और सन्तुष्टि का अनुभव होगा। प्रत्येक परिस्थिति के साथ स्वयं को एडजस्ट कर लेने से बुढ़ापे का दुःख बहुत ही कम हो जाएगा। दुःख का. अनुभव करने से दुःख बढ़ जाता है।
. बुढ़ापे में गृह-परिवार की चिन्ता से मुक्त होकर समाज-सेवा में लगे बुढ़ापे में गृह-परिवार की चिन्ता से मुक्त होकर व्यक्ति को अपनी रुचि और क्षमता के अनुरूप किसी न किसी समाज-सेवा के कार्य में, परमात्म-भक्ति में तथा
-आचारांग, श्रु. १, अ. २, उ. १
१. से ण हासाए, ण कीड्डाए, ण रतीए, ण विभूसाए। २. 'जीवन की पोथी' से भाव ग्रहण, पृ. ३२-३३