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* ३३४ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ®
गए। तपश्चर्या के प्रभाव से उनको कुछ लब्धियाँ प्राप्त हो गई थीं। किन्तु उन्होंने लब्धियों का प्रयोग न करके उन रोगों की पीड़ा को सहन करने की शक्ति बढ़ा ली. थी। फलतः रोगों को मिटाने की शक्ति होते हुए भी उन्होंने रोगों के साथ मैत्री स्थापित कर ली। मन ही मन कहा-रोगो ! तुम भी इस शरीर में रहो, मैं (आत्मा) भी इस शरीर में रहता हूँ। दोनों साथ-साथ रहें। कोई हर्ज नहीं है। मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है। इस प्रकार रोगों के साथ मैत्री स्थापित करके उन्होंने आरोग्य (अरोग) का अनुभव कर लिया था। लोगस्स के पाठ में उक्त ‘आरुग्गबोहिलाभं समाहिवर मुत्तमं दित' का उन्होंने जीवन में साक्षात्कार.कर लिया। फलतः समस्त कर्मरोगों से उन्होंने मुक्ति प्राप्त कर ली। अतः रोग होते हुए भी “अंरोग' की अनुभूति रोग को मित्र बनाने की अद्भुत कला है। शुभ ध्यान से दुहरा लाभ
शुभ ध्यान भी रोग के साथ मैत्री स्थापित करने का सरल उपाय है। ध्यान क्या है-बाहरी दुनियाँ से सम्पर्क तोड़कर, अंदर की दुनियाँ में, अन्तर में अवगाहन करना। अन्तर की गहराई में डूब जाने पर बाह्य रोगों से ध्यान और सम्पर्क छूट जाना है। रोग के मूल कर्म के साथ आत्मा के द्वारा बद्ध कर्मों से भी मुक्ति मिल जाती है। इस प्रकार कर्मरोग के साथ मैत्री स्थापित करने से बाह रोग तो विफल हो ही जाता है, आन्तरिक रोग भी आत्म-साधना से मिट जाता है रोग के प्रति किसी प्रकार ध्यान न देने से वह अपने आप निष्फल होकर भार जाता है। वृद्धावस्था के साथ मैत्री : एक अनुचिन्तन - वृद्धावस्था के साथ भी मैत्री स्थापित कर लेने पर वृद्धावस्था के दुःख औ कष्ट का अनुभव नहीं होता। बुढ़ापे में इन्द्रियों और अंगोपांगों की शक्तियाँ क्षीण हैं जाती हैं, शरीर दुर्बल हो जाता है, अशक्ति के कारण कुछ रोग भी लग जाते हैं हड्डियाँ, रीढ़ की हड्डी और धमनियाँ अकड़ जाती हैं, वे लचीली नहीं रहतीं। प्राय देखा गया है कि बुढ़ापे में मन की अक्कड़ और पकड़ भी गहरी हो जाती है। वर जिद्दी, अत्याग्रही और पूर्वाग्रही हो जाता है। समाज और परिवार के लोग ' उसकी सेवा के प्रति उपेक्षा करने लगते हैं। फलतः वृद्धत्व, निराशा, भीति औ अवांछनीयता का कारण बन जाता है। इसी कारण शास्त्र में बुढ़ापे को दुःखरू बताया है। 'आचारांगसूत्र' में कहा है-“वृद्ध हो जाने पर मनुष्य न हास-परिहा
१. (क) 'जीवन की पोथी' से भावांश ग्रहण, पृ. २८ ___ (ख) उत्तराध्ययनसूत्र, अ. १८ तथा त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र से