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* विविध दुःखों के साथ मैत्री आत्म- मैत्री है
३२५ विपत्ति उतनी दुःखद नहीं प्रतीत होती और समभाव से भोग लेने से संवर - निर्जरा का कारण भी बन जाती है। इसी दृष्टि से भगवान महावीर ने कहा- "जो भी दुःख हो, साधक उसे प्रसन्न मन से सहन करे । कोलाहल न करे।" इसके विपरीत हायतोबा मचाने, चिल्लाने या विलाप करने से दुःख या पीड़ा तो घटती नहीं, कर्म भी कटते नहीं, प्रत्युत नये अशुभ तीव्र कर्म और बँध जाते हैं। इससे दुःख के साथ तो अमैत्री होती ही है, जो आत्मा के प्रति भी शत्रुता को भी आमंत्रित करती है।
अतएव पूर्वोक्त प्रकार की चिन्तन-शैली को विकसित कर लेने से कोई भी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति या अवस्था दुःख के साथ मैत्री करने वाले आत्म-मित्र के लिए दुःखरूप नहीं बन सकेगी । ' उत्तराध्ययन' में कहा गया है - " मन और इन्द्रियों के विषय, रागात्मा को ही दुःख के हेतु होते हैं। वीतराग को तो वे किंचितमात्र भी दुःखी नहीं कर सकते।"१
क्योंकि कोई भी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि अपने आप में सुख या दुःख का कारण नहीं है। मन ही राग-द्वेष से युक्त होकर उनमें सुख-दुःख की कल्पना करता है। 'प्रवचनसार' में कहा गया है- "जिसकी दृष्टि ही स्वयं अन्धकार का नाश करने वाली है, उसे दीपक क्या प्रकाश देगा ? इसी प्रकार जब आत्मा स्वयं सुखरूप है तो उसे विषय क्या दुख देंगे ? फिर जो सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है, वह पराश्रित, बाधासहित, विच्छिन्न, बन्ध का कारण तथा विषय होने से वस्तुतः सुख नहीं, दुःख ही है।” २ 'आचारांग' में तो स्पष्ट कहा गया है - "जिन भोगों या वस्तुओं से सुख की आशा रखते हो, वास्तव में वे सुख के हेतु नहीं हैं। " ३
सुख के प्रचुर साधन होने से कोई सुखी नहीं हो जाता
अतः सुख के साधन या भोगों के साधन कितने ही अधिक हों, उनसे सुख प्राप्त नहीं होता । आज बड़े-बड़े सत्ताधारियों, व्यापारियों, नेताओं या अभिनेताओं के पास
१. एविंदियत्थाय मणस्स अत्था, दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो । ते चैव थोवं पि कयाइ दुक्खं, न वीतरागस्स करेंति किंचि ॥ २. (क) 'देवाधिदेवनुं कर्मदर्शन' से भाव ग्रहण, पृ. ४७ (ख) सुमणे अहियासेज्जा, न य कोलाहलं करे । ३. (क) 'दुःखमुक्ति : सुखप्राप्ति' से भाव ग्रहण, पृ. २५ (ख) तिमिरहरा जइ दिट्ठी, जणस्स दीवेण णत्थिकायव्वं ।
तह सोक्खं सयमादा, विसया किं तत्थ कुव्वंति ? सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंदिएहिं लद्धं, तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ।। (ग) जेण सिया, तेण नो सिया ।
-उत्तरा. ३२/१००
- सूत्रकृतांग १/९/३१
- प्रवचनसार १/६७, १ / ७६ - आचारांग १/२/४