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* २७२ * कर्मविज्ञान : भाग ६ *
अमितगतिसूरि समता द्वारा कर्मों की निर्जरा अथवा नवकर्मनिरोधरूप संवर की प्राप्ति के लिये वीतरागदेव से आत्म-निवेदन के रूप में अभ्यर्थना करते हुए कहते हैं
“सत्त्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोदम्, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्।
माध्यस्थ्य-भावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममाऽऽत्मा विदधातु देव !" -हे वीतरागदेव ! मेरी आत्मा सदैव प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभावना करे, गुणिजनों के प्रति मेरी प्रमोदभावना जाग्रत हो, प्रभो ! दुःखित-पीड़ित, क्लिष्ट जीवों के प्रति मेरी आत्मा करुणा-परायण बने और जो मेरी निन्दा करते हैं, मेरे से विपरीत व्यवहार एवं आचरण करते हैं या मेरी बात नहीं मानते, उन सबके प्रति मेरे मन में माध्यस्थ्यभाव जगे। मेरी आत्मा में ये चारों भावनाएँ यथायोग्य जाग्रत
हों।
_ 'तत्त्वार्थसूत्र' में मैत्री आदि चारों भावनाएँ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और भावब्रह्मचर्य आदि व्रतों की स्थिरता, संवृद्धि और सम्पुष्टि के लिये, समताभाव को सदैव जाग्रत रखने के लिये, साथ ही आत्मा के विशिष्ट गुणों के अभ्यास के लिए तथा 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना या 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना को सक्रियरूप देने के लिये मैत्री आदि चारों भावनाएँ बताई गई हैं।२ . . चार भावनाओं की उपयोगिता : अहिंसादि व्रतों की सुरक्षा के लिए
प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलाल जी ने मैत्री आदि चारों भावनाओं की उपयोगिता बताते हुए लिखा है-"प्राणीमात्र के साथ मैत्रीवृत्ति हो, तभी प्रत्येक प्राणी के प्रति
अहिंसक और सत्यवादी के रूप में बर्ताव किया जा सकता है। अतः मैत्री का विषय प्राणीमात्र है। मैत्री का अर्थ है-दूसरे में अपनेपन की बुद्धि। इसीलिए अपने समान ही दूसरे को दुःखी न करने की वृत्ति अथवा भावना मैत्री का आधार है। ___ कई बार मनुष्य को अपने से आगे बढ़े हुए व्यक्ति को देखकर ईर्ष्या होती है। जब तक इस वृत्ति का नाश नहीं हो जाता, तब तक अहिंसा, सत्य आदि व्रतः टिकते ही नहीं। इसलिए ईर्ष्या के विपरीत प्रमोद गुण की भावना के लिये कहा गया है। प्रमोद का अर्थ है-अपने से अधिक गुणवान् के प्रति (ईर्ष्या, असूया आदि दुवृत्तियाँ न रखकर) आदर रखना, उसके उत्कर्ष को देखकर प्रसन्न होना।
१. 'सामायिक पाठ' (समतायोग-द्वात्रिंशिका) (आचार्य अमितगति) से भाव ग्रहण, श्लो. १ २. मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थानि सत्त्व-गुणाधिक-क्लिश्यमानाऽविनेयेषु।
-तत्त्वार्थसूत्र, अ. ७, सू.६