________________
ॐ मैत्री आदि चार भावनाओं का प्रभाव ॐ २७९ *
मैत्री का फलितार्थ इस तथ्य का आशय यह है कि मित्रता का अर्थ केवल दसरे प्राणियों के प्रति वात्सल्यभाव प्रदर्शित करना ही नहीं, उसकी आशातना न करना भी है। 'श्रमणसूत्र' में ३३ प्रकार की आशातना बताई है। जैसे जीव की भी आशातना होती है, वैसे अजीव की भी आशातना होती है। काल, श्रुत, इहलोक, परलोक आदि अजीव पदार्थों की भी आशातना होती है, अपने से अल्प-विकसित चेतना वाले, न्यून इन्द्रिय, शरीर, मन आदि वाले जीवों की भी आशातना होती है। यह आशातना तब होती है, जब उनके अस्तित्व को नकारा जाता है तथा जो जैसा है, जिस स्थिति में है, उसे उसी रूप में स्वीकारा नहीं जाता। यह आशातना भी उनके प्रति एक प्रकार से द्वेष या शत्रुता है। अतः वस्तु सजीव हो या निर्जीव उसके प्रति तिरस्कार की भावना या तुच्छता की वृत्ति न हो, उसके अस्तित्व का स्वीकार करना तथा जो जैसा व जिस स्थिति में है, उसे उसी रूप में स्वीकार करना उनके प्रति मैत्रीभाव है। इस व्यापक दृष्टि से सजीव निर्जीव पदार्थों में निहित सत्य को खोजें, उसे स्वीकारें और उसके प्रति मैत्रीभावना करें।
मैत्री का लक्षणं और उद्देश्य 'सर्वार्थसिद्धि' में मैत्री का लक्षण किया गया है-“दूसरों को अपने से दुःख पैदा न हो, ऐसी अभिलाषा रखना मैत्री है।'' 'शान्तसुधारस' में मैत्री का अर्थ किया गया है-“दूसरों का हित-चिन्तन करना मैत्री है।' 'योगशास्त्र' के अनुसार“इस संसार में कोई भी प्राणी पापकृत्य न करे, कोई भी जीव दुःख का भागी न हो, सभी प्राणी दुःख से मुक्त हों और सुख का अनुभव करें, ऐसी बुद्धि मैत्री कहलाती है।" 'धर्मसंग्रह' में मैत्री का लक्षण दिया है-“दूसरे प्राणियों के वास्तविक सुख की चिन्तना या भावना करना मैत्री है।" जब साधक विश्वमैत्री के लिये उद्यत होता है, तब वह दूसरों के हित, सुख एवं कल्याण की भावना लेकर चलता है, किसी का भी अहित, अकल्याण या दुःखोत्पत्ति करने की भावना उसके मन के
पिछले पृष्ठ का शेष
नानायोनि-गतेष्वपि समत्वेनाऽविराधिका। साध्वी महत्त्वमापन्ना मतिमैत्रीति गद्यते॥६॥ जीवन्तु जन्तवः सर्वे, क्लेश-व्यसनवर्जिता। प्रागुवन्तु सुखं, त्यक्त्वा वैरं पापं पराभवम्॥७॥
-ज्ञानार्णव २७/५-७ (क) पडिक्कमामि तेत्तीसाए आसायणणाए।
.-आवश्यकसूत्र में श्रमणसूत्र (ख) 'अमूर्त चिन्तन' (युवाचार्य महाप्रज्ञ) से भावांश ग्रहण, पृ. १५