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* मैत्री आदि चार भावनाओं का प्रभाव ® २८७ 8
करुणा आत्मा का स्वाभाविक गुण तथा धर्मवृक्ष की जड़ है हृदय में सम्यग्दर्शन की धड़कन है या नहीं? इसकी पहचान भी अनुकम्पा से हो जाती है। एक आचार्य ने करुणा को धर्मवृक्ष का मूल बताते हुए कहा हैवीतराग प्रभु के उपदेश से जिन श्रावकों के करुणामृत-पूर्ण चित्त में प्राणिदया (करुणा) प्रादुर्भूत नहीं होती, उनके जीवन में (संवर-निर्जरारूप) धर्म कहाँ से हो सकता है ? क्योंकि प्राणिदया (करुणा) धर्मरूपी तक की जड़ है, व्रतों में प्रधान है, सम्पदाओं का धाम है और गुणों की निधि है। इसलिए विवेकी व्यक्तियों (सम्यग्दृष्टि-सम्पन्नों) को प्राणिदया (करुणा) अवश्य करनी चाहिए। 'धवला' में कहा है-करुणा जीव का स्वभाव (स्वाभाविक गुण) है, उसे (शुभ) कर्मजनित मानने में (सैद्धान्तिक) विरोध आता है।'' इसलिए जहाँ मानवता, सम्यग्दृष्टि या समता होगी, वहाँ करुणा का होना अनिवार्य है, भले ही वह रक्षा, दया, सेवा, अनुकम्पा, सहानुभूति, सद्भावना, सहृदयता, क्षमा, मृदुता आदि में से किसी भी रूप में हो। ये सब एक या दूसरे प्रकार से करुणा के ही रूप हैं।
ये सब करुणाभावना के ही अंग हैं वस्तुतः किसी भी प्राणी को कष्टकारक स्थिति में पीड़ित, दुःखित, चिन्तित, शोकग्रस्त, भयभीत, व्याकुलं, विलापमग्न एवं आर्तध्यानग्रस्त देखकर उसके प्रति मन में सहानुभूति तथा समवेदना उत्पन्न होना, करुणार्द्र हो जाना, उसके दुःख को स्वयं का दुःख समझकर उसके दूर होने या करने की भावना करना या यथाशक्ति दुःख-निवारण का प्रयत्न करना, उसको समाधि (मनःसमाधान) पहुँचाना, उसे आश्वासन देना, धैर्य बँधाना, उसे समुचित प्रेरणा एवं प्रोत्साहन देकर उसमें अनिवार्य दुःख को समभाव से सहने का मनोबल पैदा करना, यथाशक्ति उसके साथ मृदुता का व्यवहार करके उसे उसके मन से तथा आत्मा से उत्पन्न कल्पित या भ्रान्ति से मान्य दुःख के निवारण का उपाय बताना, उसे सुख-शान्ति पहुँचाना अथवा उसके दुःख-निवारण के लिए अपने सुख का त्याग करना, स्वयं सन्तोष धारण करना या अपने प्रिय से प्रिय पदार्थ या स्वार्थ का बलिदान देना पड़े तो भी न हिचकना; ये सब करुणाभावना के ही अंग हैं।
१. (क) येषां जिनोपदेशेन कारुण्यामृतपूरिते।
चित्ते जीवदया नास्ति. तेषां धर्मः कुतो भवेत्॥ मूलं धर्मतरोराद्या व्रतानां धाम सम्पदाम्।
गुणानां निधिरित्यंगिदया कार्या विवेकिभिः।। (ख) करुणाए जीवसहावस्स कम्मजणिदत्त-विरोहादो।
-धवला