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* मैत्री आदि चार भावनाओं का प्रभाव २८९
रमण करने पर कर्मनिर्जरा भी सम्भव है । 'भगवती आराधना' में इसी तथ्य का समर्थन किया गया है - " शारीरिक, मानसिक और स्वाभाविक ऐसे असह्य दु:ख प्राणियों को पाते देखकर - बेचारे इन दीन प्राणियों ने मिथ्यात्व, अविरति ( प्रमाद), कषाय और अशुभ योग से जो कर्म बाँधे हैं, उन्हीं अशुभ कर्मों के फलस्वरूप प्राप्न हुए दुःख, ये भोग रहे हैं; प्रभो ! ये शीघ्र ही दुःखों से छूटें, इस प्रकार करुणा ई होना करुणा है, अनुकम्पा है ।" "
करुणापूर्ण हृदय भय और प्रलोभनों से विचलित नहीं होता
यह बात अवश्य है कि जिस साधक का हृदय करुणाभावना से ओतप्रोत होता है, वह भय और प्रलोभनों से कदापि विचलित नहीं होता । एक अमेरिकन महिला करुणामूर्ति जॉन ह्विटले ने जब यह देखा कि अफ्रीकी देशों से छोटे-छोटे बालक-बालिकाओं को खरीदकर यूरोप में भेजे जाते हैं । निर्दय व्यवसायी उन्हें जिन धनिकों को बेचते हैं, वे धनिक उनके साथ बहुत बुरा बर्ताव करते हैं, उन्हें तरह-तरह से यातना देते, मनमाना काम कराते हैं और जीवितभर रहने के लिए अन्न और फटे-पुराने वस्त्र देते हैं । इस दयनीय दशा को देखकर जॉन ह्विटले का हृदय करुणा से भर आया । उसने इस अमानुषिक प्रथा का अन्त करने की ठान ली। जॉन ह्विटले ने अपनी सारी सम्पत्ति लगाकर 'सेनेगल' से आये हुए अफ्रीकी लड़कियों से भरा जहाज खरीद लिया। उन लड़कियों से गुलाम के रूप में व्यवहार न करके उन्हें गृहोद्योग का प्रशिक्षण दिया, उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाया। गुलाम लड़कियों के साथ 'जॉन ह्विटले' का ऐसा मानवीय और करुणापूर्ण व्यवहार देखकर अमेरिकी गोरे उसकी जान के ग्राहक बन गए। जब इस नीति से जॉन अपने पथ से विचलित नहीं हुई तो कुछ धनिक गोरों ने उसे प्रलोभन भी दिया। परन्तु जॉन न तो भयभीत हुई और न ही प्रलोभन से डिगी । उसने साफ-साफ कहा - "मैं नारी हूँ । नारी का वात्सल्य, कारुण्य और दयालु हृदय किसी भी देश या समाज की नारी को उत्पीड़ित और दुःखित नहीं देख सकती। मैं अपनी करुणा को साकार बनाकर ही रहूँगी, चाहे मुझे कितनी ही यातनाएँ सहनी पड़ें। "
सच्ची विश्वव्यापी करुणा से सामाजिक और आध्यात्मिक लाभ
सच्ची करुणा सीमित नहीं होती, वह विश्वव्यापी होती है । वह स्त्री-पुरुष देशविदेश, काले-गोरे, स्वजातीय- परजातीय, स्वसम्प्रदायीय- परसम्प्रदायीय, स्वराष्ट्रीयपरराष्ट्रीय, स्वप्रान्तीय परप्रान्तीय का भेदभाव नहीं करती। सच्चे करुणामूर्ति
१. शारीरं मानसं स्वाभाविकं च दुःखमसह्यमाप्नुवतो दृष्ट्वा - हा वराका ! मिथ्यादर्शनेनाविरत्या कषायेणाऽशुभेन योगेन च समुपार्जिताऽशुभकर्म-पर्याय- पुद्गल-स्कन्ध-तदुपोद्भवा विपदो विवशाः प्राप्नुवन्तीति करुणा, अनुकम्पा । -भगवती आराधना