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२९४ कर्मविज्ञान : भाग ६
प्रत्येक प्राणी स्वकृत कर्मानुसार सुनने को तैयार न हो तो द्वेषभाव न लाए
तब
प्रत्येक प्राणी अपने पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मानुसार शुभ-अशुभ संस्कारों से युक्त होते हैं। जब तक उनके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकर्म का क्षय या क्षयोपशम नहीं होते या स्व- पुरुषार्थ द्वारा स्वतः अशुभ को शुभ में परिवर्तन करने या शुभाशुभ कर्मों का क्षय करने के लिए तैयार नहीं होते, तक उनके शुभ संस्कार जाग्रत नहीं हो सकते, न ही वे सम्यग्ज्ञान की बातों को ग्रहण करने के लिये तैयार हो सकते हैं। अतः माध्यस्थ्य के साधक का कर्त्तव्य हैसद्भावनापूर्वक उद्बोधन या प्रेरणा करना, उद्बोधन को भी कोई सुनना न चाहता हो तो मौन रखना, अपनी बात न माने तो मौन धारण करना, किन्तु उस पर रोष, द्वेष या प्रहार करना कथमपि उचित नहीं है। समभावी आचार्य हरिभद्रसूरि का परामर्श इस विषय में द्रष्टव्य है - " सभी मानव अपने - अपने शुभाशुभ कर्मकृत संस्कारों के कारण स्व-स्वकर्मों का फल भोगते हैं। इसलिए जो व्यक्ति अनुरागी बनकर अपनी बात सुनते हों, उनके प्रति राग और जो ( विरोध और द्वेषवश ) न सुनते हों, उनके प्रति मध्यस्थ को द्वेष नहीं रखना चाहिए।” उसे विरोधी के विचारों और भावनाओं को सुनते ही उबल पड़ना नहीं चाहिए, किन्तु सुनने की सहिष्णुता रखनी चाहिए।
माध्यस्थ्य गुण की परीक्षा
माध्यस्थ्य गुण की परीक्षा के लिए एक आचार्य ने कहा- राग (मोह, आसक्ति) का कारण प्राप्त होने पर जिसका मन रागयुक्त न हो तथा द्वेष (घृणा, ईर्ष्या आदि) का कारण प्राप्त होने पर जो द्वेषयुक्त नहीं होता, यानी राग और द्वेष दोनों से मध्यस्थ का मन तटस्थ हो तो वहाँ माध्यस्थ्य गुण कहा गया है । '
इस प्रकार की माध्यस्थ्यभावना वाला साधक अत्यन्त दुष्ट, दुःसाहसी, महापापी द्वारा द्वेष, दुर्भावना, वैर-विरोध करने पर भी अपनी राग-द्वेषरहित वृत्ति को मौन, उपेक्षा, उदासीनता या तटस्थता धारण करके सुरक्षित रख पाता है। ऐसा करने से प्रायः उनका हृदय परिवर्तन और जीवन - परिवर्तन भी हो जाता है। यह माध्यस्थ्यभाव की महाशक्ति है।
१. (क) 'समतायोग' से भाव ग्रहण
(ख) स्व-स्वकर्मकृतावेशाः स्व-स्वकर्मभुजोनराः । न रागं न चापि द्वेषं, मध्यस्थस्तेषु गच्छति ॥ (ग) रागकारण-सम्प्राप्ते न भवेद् रागयुग्मनः । द्वेषहेतौ न च द्वेषस्तस्मान् माध्यस्थ्य-गुणः स्मृतः ॥
-अष्टक