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ॐ आत्म-मैत्री से मुक्ति का ठोस कारण ® ३१३ 8
क्षणिक तथा नाशवान् होती है। इसीलिए भगवान महावीर ने पूर्वोक्त रीति से आत्मा ही अपना सच्चा मित्र बनाने का निर्देश दिया है।
संयोग-सम्बन्धजनित मैत्री कितनी दुःखदायी,
कितनी आत्म-मैत्री विस्मृतिकारिणी मनुष्य अनेक वस्तुओं, व्यक्तियों, परिस्थितियों तथा अवस्थाओं से जब संयोगसम्बन्धजनित मैत्री जोड़ता है, तब उसे किस प्रकार दुःख उठाना पड़ता है ? और उन दुःखों के समय वह आत्मा के साथ वास्तविक मैत्री-सम्बन्ध को कैसे भूल जाता है ? इस पर विचार करना आवश्यक है।
वस्तुओं से मैत्री-सम्बन्ध जोड़ने के साथ वह वस्तुओं से सुख पाने की भ्रान्ति में उन वस्तुओं या विषयों की गुलामी में जकड़ जाता है। वह उन वस्तुओं को नित्य अपरिवर्तनीय समझने लगता है। इसी मोहजनित भ्रान्ति के कारण जड़ वस्तुओं का संग्रह करने, जुटाने और उनका संरक्षण करने का लोभ जागता है। इस उधेड़बुन में पड़कर वह अपनी आत्मा के साथ मैत्रीभाव को भूल जाता है। जड़ वस्तुओं से जुड़े रहने से उसमें मूढ़ता और जड़ता बढ़ती जाती है। यह आत्म-मैत्री के बजाय आत्मा को शत्रु बनाने का घातक उपक्रम है। ___ व्यक्तियों के साथ रागभाव के कारण मैत्री-सम्बन्ध प्रायः मोह एवं स्वार्थ से युक्त होता है। फलतः व्यक्ति उनके वियोग में तथा अपने और अपनों के अनिष्ट-संयोग में दुःखी होता रहता है। 'आचारांगसूत्र' में स्पष्ट कहा है"जिनके साथ वे स्व-सम्बन्धी (स्नेही आत्मीयजन) पहले ही एक दिन उसको छोड़ देते हैं, वह भी बाद में उन स्वजनों को छोड़ देता है।" इस प्रकार संयोग और वियोग दोनों में ही वह मैत्री दुःखद बनती है। दोनों ओर से सुख की आशा रखी जाती है, वह भी भंग हो जाती है। परस्पर मोह, मूर्छा, ममता में आबद्ध होते हैं, वहाँ आत्म-चेतना के साथ मैत्री को विस्मृत कर दिया जाता है। बल्कि आत्मा के लिए व्यक्तियों के साथ स्वार्थपूर्ण मैत्री आत्मा के लिए वैर का काम करती है। 'आचारांग' में स्पष्ट कहा है-“देरं वड्ढेति अप्पणो।''-आत्मा के साथ वह व्यक्ति वैर ही बढ़ाता है।
परिस्थिति और अवस्था सदा एक-सी नहीं रहती। आज अनुकूल है, इसलिए उसके प्रति आसक्ति होती है, सुख पाने की आशा रहती है; कल की परिस्थिति
और अवस्था प्रतिकूल होते ही मानसिक संक्लेश, संताप और दुःख होता है। परिस्थिति और अवस्था का दास बनने पर व्यक्ति आत्मा के स्वभाव और उसके स्वरूप से दूर हो जाता है। फिर परिस्थिति और अवस्था दोनों स्वभावतः अपूर्ण