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ॐ २७० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
विषमतामय संसार में चार कोटि के जीवों का संसर्ग व सम्पर्क
इस अनन्त जीवों से भरे संसार में सभी प्राणी या सभी मनुष्य एक समान नहीं होते। अपने-अपने कर्मानुसार प्राणियों को शुभ-अशुभ योनि, गति, जाति, शरीर, अंगोपांग आदि या मनःस्थिति, प्रकृति, परिस्थिति, अवस्था आदि का संयोग मिलता. है। उन प्राणियों में कई अच्छे, शान्त स्वभाव के, सहृदय, हितैषी, सुख-सम्पन्न और स्वस्थ होते हैं और उनसे सम्पर्क आता है, कई प्राणी या व्यक्ति दुःखित, पीड़ित, अभावग्रस्त, दीनता-हीनता से युक्त होते हैं और उनसे भी वास्ता. पड़ता है, कई गुणवान्, पुण्यवान्, आध्यात्मिक विकास में अग्रसर, परोपकार कर्मठ, स्वार्थत्यागी, त्यागी, तपस्वी, ज्ञानी, विद्वान्, साधनाशील आदि अनेक गुण-सम्पन्न होते हैं और उनसे भी एक या दूसरे प्रकार से सहयोग लेना या सम्पर्क करना होता है और ऐसे भी व्यक्ति या प्राणी मिलते हैं, जो प्रत्येक अवस्था में हमें विरोध, संघर्ष ही प्रायः करते हैं, वे सामाजिक नैतिक नियमों से विपरीत चलते हैं अथवा वे द्वेष, रोष, वैर-विरोध करते रहते हैं, पापपंक में मग्न रहते हैं। चार कोटि के जीवों के साथ सम्पर्क होने पर चित्त में राग-द्वेषादि कालुष्य की उत्पत्ति - इन्हीं चारों कोटि के व्यक्तियों या प्राणियों को ‘योगदर्शन' में चार प्रकार की संज्ञा से अभिहित किया गया है-सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापात्मा। साधारण जनों या स्थूलदृष्टि वाले व्यक्तियों के मन में इन चारों प्रकार के व्यक्तियों को देखकर उनके प्रति अपने अदूरदर्शी विचारों के अनुसार राग, द्वेष, घृणा, ईर्ष्या, वैर-विरोध, रोष आदि उत्पन्न होना सम्भव है। किसी व्यक्ति को शुभ निमित्तों से सम्पन्न तथा सुख-सम्पन्न देखकर उसके अनुकूल व्यक्ति या व्यक्तियों को उसके प्रति राग, मोह या आसक्ति उत्पन्न हो जाती है तथा प्रतिकूल व्यक्तियों को द्वेष, ईर्ष्या, असूया आदि उत्पन्न होती है। किसी व्यक्ति को दुःखित, पीड़ित या अभावग्रस्त देखकर उसके प्रति घृणा, अरुचि या तिरस्कार की दुर्भावना होने लगती है और अपने पद, प्रतिष्ठा, सत्ता और सम्पत्ति के मद के नशे में आकर उसे धिक्कारने, दुत्कारने तथा अपमानित करने का घृणित व्यवहार करके उसे और अधिक दुःखी करते रहते हैं। उसके प्रति हृदय सहानुभूति, सहृदयता, कोमलता, करुणा या दया से शून्य हो जाता है। किसी गुणवान् एवं पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित, उन्नत, प्रशंसित एवं विख्यात जीवन को देखकर साधारण अविचारी जनों के चित्त में या साम्प्रदायिक कट्टरता से रंगे हुए मन में उसके प्रति ईर्ष्या, असया, डाह आदि दुर्भाव उत्पन्न होते हैं। उसकी प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, यशकीर्ति एवं आदर को देखकर कई लोग अकारण ही मन में जलने लगते हैं और इसी तेजोद्वेष, ईर्ष्या एवं जलन