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* मैत्री आदि चार भावनाओं का प्रभाव ३ २७३
किसी व्यक्ति या प्राणी को पीड़ित, दुःखित या व्यथित देखकर भी यदि अनुकम्पा का भाव पैदा न हो तो अहिंसा आदि व्रत कभी निभ नहीं सकते । इसलिए करुणा की भावना आवश्यक मानी गई है । इस भावना का विषय केवल क्लेश से पीड़ित (सहायापेक्षक या अनुग्रहापेक्षक दीन, दुःखी, अनाथ) प्राणी है।
सर्वत्र सर्वदा मात्र प्रवृत्तिपरक भावनाएँ ही साधक नहीं होतीं। कई बार अहिंसा आदि व्रतों को स्थिर रखने के लिये तटस्थभाव धारण करना उपयोगी होता है। इसी कारण यहाँ माध्यस्थ्यभावना का उपदेश दिया गया है। माध्यस्थ्य का अर्थ है - उपेक्षा या तटस्थता । जब नितान्त संस्कारहीन अथवा किसी तरह की भी वस्तु को ग्रहण करने के अयोग्य पात्र मिल जाय और उसे सुधारने के सभी प्रयत्नों का परिणाम अन्ततः शून्य ही दिखाई दे तो ऐसे व्यक्ति के प्रति तटस्थभाव रखना ही उचित है। अतः माध्यस्थ्यभावना का विषय अविनेय या अयोग्य पात्र ही है । '
चारों भावनाओं से आध्यात्मिक और सामाजिक लाभ
'योगशास्त्र' के अनुसार- ये चारों भावनाएँ ध्यान को परिपुष्ट करने वाली रसायन के दृश हैं। चित्त में मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्यभाव रखने से योग की विशिष्ट साधना सम्यक् प्रकार से चलती है। इन चारों भावनाओं को जीवन में क्रियान्वित करने वाला व्यक्ति प्रतिकूल प्रसंगों में भी राग-द्वेषादि विकल्पों से दूर रहकर समत्वभाव में स्थिर रह सकता है और अनायास ही संवर और निर्जरा का लाभ प्राप्त कर सकता है। इन भावनाओं के विकास से जन-जीवन में ईर्ष्या, द्वेष, संघर्ष, कलह आदि विषमभाव नष्ट हो जाते हैं। इनके बदले मैत्री, वात्सल्य, आत्म-बन्धुता, आत्मौपम्य, सद्भावना, गुणग्राहकता, करुणा और तटस्थता का विकास होता है।
इस प्रकार मैत्री आदि चारों भावनाएँ मन में उठने वाली विभिन्न विषमताओं को मिटाती हैं, बिषमताओं से होने वाले अशुभ कर्मों के बन्ध को रोकती हैं, आत्मौपम्य की भावना को पुष्ट करती हैं, जिससे एक ओर से शुभ योग - संवर तो होता ही है, साथ ही आत्म-भावों की ऊर्मियों के कारण भाव-संवर और कर्मनिर्जरा तक भी हो जाती है। इन भावनाओं के प्रभाव से विश्व के प्राणीमात्र में शान्ति का संचार होता है । २
१. . तत्त्वार्थसूत्र, अ. ७, सू. ६ विवेचन (पं. सुखलाल जी ) से साभार उद्धृत, पृ. १७१-१७२ २. (क) 'योगशास्त्र' (हेमचन्द्राचार्य), प्रकाश ४, श्लो. ११७
(ख) 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' (आचार्य देवेन्द्र मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. ६६३-६६४