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ॐ भाव-विशुद्धि में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ * २६१ 8
अधिकार है ? वह क्यों हमसे अपनी अधीनता स्वीकारने को कहता है? मालूम होता है, उसकी राज्यलिप्सा बहुत बढ़ गई है। बहुत-से दूसरे राजाओं का राज्य ले लेने पर भी उसे संतोष नहीं हुआ। अब वह हम सब का राज्य भी हथियाना चाहता है। ऐसी स्थिति में हमें क्या करना चाहिए? अपने राज्य की रक्षा के लिए भाई भरत से युद्ध करना चाहिए या उसकी अधीनता स्वीकार कर लेनी चाहिए?" विचार-विमर्श के अन्त में सबने एकमत से निर्णय किया-“राज्य हमें पिताजी ने दिया है। इस विषय में उनकी ही सम्मति लेकर हमें कार्य करना चाहिए। उनसे बिना पूछे कोई भी कदम उठाना हितावह नहीं होगा।" यों विचार कर वे सभी भगवान ऋषभदेव के पास आए और उनके समक्ष अपनी समस्या प्रस्तुत की। उन्होंने फरमाया-“पुत्रो ! तुम इस बाह्य राज्यलक्ष्मी के लिए क्यों चिन्तित हो रहे हो? कदाचित् तुम भरत से अपने-अपने राज्य की रक्षा करने में समर्थ हो जाओगे, तो भी अन्त में देर-सबेर से तुम्हें ये चंचल राज्यलक्ष्मी छोड़नी पड़ेगी। इससे बेहतर है, तुम सभी धर्म की शरण में आ जाओ, तुम्हें मुक्तिरूपी राज्यलक्ष्मी प्राप्त हो जाएगी, जिसे कोई भी छीन न सकेगा। वह स्थायी, नित्य और अविनाशी है। इसके लिए फिर उन्होंने कहा-“आर्यो ! तुम सम्बोधि प्राप्त करो। तुम इस बोध को क्यों नहीं प्राप्त करते? परलोक में फिर तुम्हें यह सम्बोधि प्राप्त होनी दुर्लभ होगी। जो रात्रियाँ (समय) व्यतीत हो गईं, वे पुनः लौटकर नहीं आतीं। अतः (इस समय के बीत जाने पर) फिर संयमी जीवन प्राप्त होना सुलभ नहीं होगा।"१ भगवान के उपदेश को सुनकर सबने बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा की और प्रबुद्ध होकर सभी ने अपना-अपना राज्य तथा धन-धाम छोड़कर भगवान के पास दीक्षा अंगीकार कर ली और साधना करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए। यह था ९८ राजकुमारों द्वारा की गई बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा का सुफल !२. (१२) धर्मानुप्रेक्षा : क्या, क्यों और कैसे ?
धर्म की आवश्यकता और उपयोगिता ... मानव-जीवन को सरस, सुखद और निश्चिन्त बनाने के लिए धर्म ही एकमात्र साधन है। जब मनुष्य पर विपत्ति की बिजली कड़क रही हो, रोग, शोक और रोष-द्वेष की आँधियाँ उमड़ रही हों, भय का वातावरण हो, अपने वास्तविक शील,
१. संबुज्झह किं न बुज्झह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा। . . णो हुवणमंति राइओ, णो सुलभं पुणरावि जीवियं॥ -सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. २, उ. १ २. (क) सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. २, उ. १, शीलांकाचार्य टीका से संक्षिप्त
(ख) त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित, प्रथम पर्व